आज भी सिहरन पैदा करता है वो 2 अक्तूबर

मनु पंवार

(आज कहने को व्यंग्य नहीं है. एक दास्तान है. कुछ डरावनी यादें हैं। बयानी है उन ख़ौफ़नाक काले दिनों की, जब एक चुनी हुई सरकार ने अपने ही नागरिकों पर ज़ुल्म की इंतेहा की। उसके प्रजातांत्रिक अधिकारों को बड़ी बर्बरता से कुचल दिया। उसके मानवाधिकारों की धज्जियां उड़ा दीं। वर्दी में बलात्कार किया। इसकी वजह से इस मुल्क के ही एक हिस्से के लाखों निवासियों के लिए 1994 के बाद से 2 अक्तूबर के मायने पूरी तरह से बदल गए। आप उत्तराखंड में जाएंगे तो पाएंगे कि 2 अक्टूबर के दिन को गांधी जयंती के बजाय मुजफ्फरनगर कांड के लिए याद किया जाता है। उसी पर बात होती है, उसी पर चर्चा होती है, उसी का ज़िक्र करके गुस्सा फूटता है। वरना तो उससे पहले तक 2 अक्तूबर का मतलब होता था गांधी जयंती, प्रभात फेरी, झंडारोहण, देशभक्ति के गीत, स्कूलों में सांस्कृतिक कार्यक्रम और फिर अंत में बंटने वाला लड्डू। साल के तीन राष्ट्रीय पर्वों में से एक पर्व- दो अक्तूबर। सरकारी छुट्टी। लेकिन अब दो अक्तूबर की तारीख़ का ज़िक्र ही एक अज़ीब तरह की सिरहन पैदा करता है।)

तारीख गवाह है: 2 अक्तूबर 1994 का अमर उजाला अख़बार का मुखपृष्ठ
मैं भी उस भीड का हिस्सा रहा हूं जिसमें उस दिन रह-रह कर अतिवादी नारे भी गूंज रहे थे। दिल्ली दूर-पेइचिंग नज़दीक। यह 2 अक्तूबर 1994 की बात है। ठीक बाईस साल पहले। तब करीब उन्नीस-बीस बरस का रहा हूंगा। तब शायद ही किसी को मालूम भी रहा हो कि पेइचिंग वास्तव में पड़ता किधर है और मेरे शहर पौड़ी से उसकी दूरी है कितनी? उन दिनों आज जैसा 'गूगल सर्च' भी तो नहीं था कि दूरी का मोटा-मोटा अंदाज़ा लग पाता। सिर्फ इतना पता था कि मेरे शहर के ठीक सामने जो हिमालय की चोटियां दमक रही हैं, उनके पीछे कही तिब्बत पड़ता है। लेकिन उस दिन गूंज रहे नारों में से 'पेइचिंग' भी एक था। हालांकि उस नारे का कोई आधार नहीं था। कोई ज़मीनी सच्चाई नहीं थी। बस जज्बाती लोगों का गुस्सा फूट रहा था। गुस्सा विवेक को हर लेता है। उस गुस्सैल भीड़ में पौड़ी के 10 से 12 हज़ार लोग रहे होंगे. युवक, अधेड़, बूढ़े, महिलायें, बच्चे सब...। गुस्से से भरी आवाज़ें, तनी हुई मुट्ठियां, आंखों में घुमड़ती आग और दिलों में उबाल। 
3 अक्तूबर 1994 का दैनिक जागरण का कवर पेज

2 अक्तूबर को क्या हुआ था?

सिर्फ पौड़ी में ही नहीं, उत्तराखंड के तमाम पहाड़ी नगरों, कस्बों में उस दिन बड़े-बड़े जुलूस निकले। हिंसा हुई। लोग मारे गए। इस सब की पृष्ठभूमि में था 2 अक्तूबर 1994 का मुज़फ़्फ़रनगर कांड। जहां सत्ता ने अपने नागरिकों पर ऐसा दमन किया, जिसकी मिसाल आज़ाद भारत में शायद ही कहीं देखने को मिलेगी। तत्कालीन उत्तर प्रदेश के पहाड़ी हिस्सों को मिलाकर एक अलग उत्तराखण्ड राज्य बनाए जाने के ऐतिहासिक आंदोलन के दिन थे वे। उत्तराखण्ड के कोने-कोने से आंदोलनकारी प्रजातांत्रिक तरीके से अपनी मांग केंद्र की सरकार तक पहुंचाने के लिए बोट क्लब में रखी गई रैली में शामिल होने जा रहे थे। गढ़वाल वाले हिस्से से दिल्ली जाने के दो प्रमुख रास्ते हैं। चमोली, उत्तरकाशी, टिहरी, ऋषिकेश इत्यादि जगहों से लोग हरिद्वार, रुड़की, मुज़फ़्फ़रनगर के रास्ते जा रहे थे। तो पौड़ी, कोटद्वार से आंदोलनकारी नज़ीबाबाद, बिजनौर, मेरठ होकर जा रहे थे।

ये सारे लोग बसों और गाड़ियों में दिल्ली आ रहे थे। लेकिन यूपी की पुलिस ने एक और दो अक्तूबर की आधी रात को मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहे पर बसों-गाड़ियों को रोक दिया। रोके जाने से आंदोलनकारी नाराज़ हुए तो देखते ही देखते निहत्थे आंदोलनकारियों पर टूट पड़ी पुलिस। सीधे फायरिंग कर दी। 8 से 10 लोग मारे गए। घायलों की संख्या अनगिनत थी। महिला आंदोलनकारियों के साथ उस रात गन्ने के खेतों में यूपी पुलिस के जवानों ने बलात्कार किया। याद दिलाना ज़रूरी है कि उस दिन भी आज ही की तरह गांधी जयंती थी। अहिंसा के विचार की सबसे बड़ी हस्ती का जन्मदिन था।
2 अक्तूबर को पुलिस जुल्म की कुछ तस्वीरें जो अख़बारों में छपी 
पूरे पहाड़ में 2 अक्तूबर 1994 की सुबह बड़ी तनावभरी थी। मुजफ्फरनगर में पुलिस फायरिंग और महिलाओं से पुलिस के दुष्कर्म की ख़बरें आने लगी थीं। फिज़ाओं में एक अलग तरह का गुस्सा तैर रहा था। लोग अपने घरों से जत्थों में निकल-निकल कर सुबह ही पौड़ी के बस स्टेशन पर जुटने लगे थे। सरकारी रेडियो मामूली झड़पों की ख़बरें बता रहा था। इसका मतलब हमने ये लगाया कि कोई बड़ी घटना हुई है। ठीक से याद नहीं आ रहा है, लेकिन शायद बीबीसी रेडियो ने अपने प्रसारण में बताया था कि मुजफ्फरनगर में दरअसल हुआ क्या है और कितने लोग मारे गए। धीरे-धीरे स्थिति कुछ साफ़ होने लगी। 

...उस दिन हो जाता खूनख़राबा

दिल्ली गए कुछ आंदोलनकारी आधे रास्ते से ही बसों से लौटे। लड़के छतों पर सवार होकर हुंकारें भर रहे थे। उनकी जुबान पर खून का बदला खून से लेंगेजैसे हिंसक नारे थे। कइयों ने अपने सिर पर पट्टे बांधे हुए थे और हाथों में थे मोटे-मोटे डंडे। उनकी ज़ुबान से अंगारे बरस रहे थे। उनके पौड़ी बस स्टेशन पर उतरते ही भारी भीड़ जुट गई। अजीब तरह का उन्माद था। गुस्सैल नारों का जवाब वहां इकट्ठा भीड़ तूफानी नारों से दे रही थी। फिर तो मानो पूरा शहर ही उबल पड़ा। जुलूस निकलने लगे। उनमें तेज़ाबी नारे गूंज रहे थे। पूरा शहर सड़क पर था। हालात को भांपकर पुलिस सड़क से गायब हो गई थी। बस लोग ही लोग थे। उनकी ज़ुबान पर अतिवादी नारे भी थे। पुलिस ने छिपकर इधर-उधर मोर्चाबंदी कर ली थी। लग रहा था कि बहुत बड़ी गड़बड़ होने वाली है। लेकिन वहां जुटा कोई भी शख्स डर नहीं रहा था। सबका खून खौल रहा था। 

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इस बीच, मेरा एक सहपाठी अपने दोस्तों के एक झुंड को बदला लेने के लिए उकसाने लगा। वो बस स्टेशन के ऊपरी हिस्से में एक चौकी में बैठे कुछ पुलिसवालों पर हमला करने और उनकी बंदूकें छीनने की सलाह दे रहा था। लेकिन उनकी सुगबुगाहट सुनकर कुछ अधेड़ किस्म के विवेकशील लोगों ने उन्हें ऐसा करने से रोका। वैसे भी पहाड़ियों की प्रवृत्ति है कि वे स्वभावत: हिंसक नहीं होते। प्रकृति ने उनमें बहुत धैर्य दिया है। शायद इसी वजह से वे खुद को 'राष्ट्रीय धारा' से जोड़े रखते हैं। इसीलिए वहां अलगाव नहीं पनपा। कोई भी हिंसक विचार जड़ें नहीं जमा पाया। वरना 2 अक्तूबर 1994 की घटना के बाद से उत्तराखण्ड की सामाजिक और राजनीतिक सूरत बदली हुई होती। 

उत्तराखंड राज्य आंदोलन की एक तस्वीर

जब गोलियों से थर्राई हमारी नगरी
तो इस तरह पौड़ी में उस वक्त पुलिस आंदोलनकारियों के गुस्से की सीधी चपेट में आने से तो बच गई लेकिन क्रुद्ध लोगों ने सरकारी इमारतों में आग लगा दी। मुमकिन है कि भीड़ की आड़ में ऐसा कुछ उपद्रवियों ने किया हो। लेकिन पहाड़ की ढलान पर ब्रिटिशकाल में बनी तहसील की इमारत धू-धूकर जल उठी। फिर भारी पुलिस बल हथियारों से लैस होकर सड़क पर उतर आया। उसने पहले लाठियां फटकारीं, आंसू गैस के गोले दागे। फिर हवाई फायरिंग शुरू कर दी। इस छोटे से पहाड़ी शहर में ऐसी अंधाधुंध फायरिंग की आवाज़ें पहले हमने कभी नहीं सुनी थी। लग रहा था कि आज न जाने कितनों का खून बहेगा। ऐजेंसी इलाके में पुलिस की हवाई फायरिंग में एक युवक को गोली लग गई। जी हां, सुनकर हैरानी हो सकती है लेकिन हवाई फायरिंग में गोली लगी ! कुछ नेगी नाम था उस लड़के का। इस वाक़ये पर मैंने बाद में एक ग़ज़ल भी लिखी थी। उसकी दो पंक्तियां यूं हैं-

'हमारे इम्तिहानों की घड़ी है।
ये वर्दी जान लेने पे अड़ी है।

बहाना है हवाई फायरिंग का
निशाने पे हमारी खोपड़ी है।'

यकीन मानिए, यह उस समय बीस साल के उस लड़के की अभिव्यक्ति है, जो इस ब्लॉग में आज आपको उन ख़ौफ़नाक दिनों की दास्तान सुना रहा है। मैंने ये गज़ल उस दौरान कई मंचों पर कही। कई जगह छपी भी।

पहली बार देखा कर्फ्यू 

उस दिन अपनी सरकार और सिस्टम के प्रति पूरे पहाड़ में पहली बार अलगाव के बेहद ख़तरनाक, बेहद तीखे, बेहद ज्वलनशील स्वर सुनाई दे रहे थे। दिल्ली दूर-पेइचिंग नज़दीक के नारे इसी तात्कालिक गुस्से से उपजे। अब कोई चाहे तो अपनी सुविधा के लिए इस कृत्य को राष्ट्रविरोधी कह सकता है, मगर यह उस वक्त के गुस्से की पैदाइश था। जिसकी जड़ में तब की सरकारें थीं। यूपी में मुलायम सिंह की सरकार और केंद्र में नरसिम्हा राव की सरकार। एक ने जुल्म ढाए, दूसरे ने उस पर मौन साधे रखा। 2 अक्तूबर को मुज़फ़्फ़रनगर कांड से पहले यूपी की पुलिस ने उत्तराखंड के दो शहरों में खूनख़राबा किया। 1 सितंबर 1994 को खटीमा में गोली चलाकर 8 आंदोलनकारियों को मार डाला और अगले ही दिन 2 सितंबर 1994 को मसूरी की शांतवादियों को गोलियों से दहलाकर 6 आंदोलनकारियों को मौत के घाट उतार दिया।


मुजफ्फरनगर कांड के खिलाफ पूरा पहाड़ उबल पड़ा
मुजफ्फरनगर में अपने जघन्य कृत्य की प्रतिक्रिया से भयभीत यूपी सरकार ने पहाड़ के छोटे-छोटे नगरों, कस्बों पर जबरन कर्फ्यू थोप दिया। लगभग पूरे पहाड़ में कर्फ्यू था। हमने भी पहली बार कर्फ्यू देखा। कर्फ्यू की आड़ में पुलिस और यूपी की सबसे बदनाम फोर्स 'पीएसी' का अत्याचार और लूटपाट देखी। घरों में जो अठारह-बीस साल के लड़के थे, जो युवक थे, उनके घरवाले उन्हें पुलिस-पीएसी की नज़रों से छिपाते रहे। कई परिवारों ने अपने लड़कों को दूर गांवों में भेज दिया। पता चला कि कर्फ्यू के दौरान रात को पुलिस-पीएसी किसी भी घर में घुसकर लड़कों को उठा ले जाती। मारती-पीटती, उपद्रवियों में शामिल कर लेती।

मेरे पड़ोस में रहने वाले यशपाल भाई (यशपाल बेनाम, आज नगर पालिका चेयरमैन हैं) को पुलिस आधी रात को उठा ले गई थी। इससे घबराकर मेरे पिताजी ने भी मुझे सख्त हिदायत दी थी कि किसी भी सूरत में घर से बाहर न निकलना। पुलिसवालों को शक्ल भी नहीं दिखनी चाहिए। कर्फ्यू में दिन तो जैसे-तैसे कट जाते थे, मगर रात को दरवाजे पर कोई हल्की सी दस्तक भी दहशत में भर देती थी। कहीं पुलिस, पीएससी वाले न हों। कर्फ्यू के चलते ज़िंदगी ठप पड़ गई थी। पुराना घर था। घरों के अंदर शौचालय का ज़्यादा चलन नहीं था। बाहर की तरफ़ जाना पड़ता था। लेकिन उन दिनों डर बैठ गया था। कहीं पुलिस-पीएसी की नज़र न पड़े। सोचिए, कैसी दहशत के दिन थे वे।

घर में इकट्ठा ज़रूरी सामान भी धीरे-धीरे खत्म होने लगा। खाने-पीने की चीज़ों की भीषण किल्लत हो गई। हमने सुबह-शाम आलू उबालकर खाये। बिना दूध वाली चाय पी। वो खौफनाक दिन ऐसे ही गुजरे। अब सोचता हूं कि जहां लंबे-लंबे वक़्त के लिए कर्फ्यू लगते हैं, वहां लोगों पर क्या गुज़रती होगी...। 

पुलिस और पीएसी को वो दहशत

मुझसे बड़ा भाई भी 2 अक्तूबर 1994 की बोट क्लब की रैली के लिए किसी जत्थे के साथ दिल्ली गया था। उसकी सलामती के लिए हम इतने परेशान और इतने बेचैन रहे कि बयां नहीं कर सकते। तब कोई साधन नहीं था कि कुशलक्षेम मिल पाती। घर में टेलीफोन नहीं था और शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया था। किससे पता करें, कैसे पता करें और कहां पता करें? कुछ समझ नहीं आ रहा था। घर की चाहरदीवारी में बंधक बने रहे। झुंझलाहट होती रही। पिताजी की फिक्र दोहरी थी। दिल्ली रैली में गए बेटे का पता नहीं चल पा रहा था और इधर घर में दूसरे बेटे यानी मुझे पुलिस-पीएसी की ख़ौफनाक नज़रों से बचाना था।
मुजफ्फरनगर में इसी जगह पर पुलिस ने गोली चलाई और रेप किया

उन दिनों पुलिस और पीएसी ने पूरे शहर को आतंकित किए रखा। पीएसी के बारे में उससे पहले सुना ही था कि वो बहुत अराजक फोर्स है, लेकिन हम जैसे सीधे-सादे पहाड़ियों के लिए ये अनुभव एकदम नया था। हम तो पटवारी की डांट से ही हड़क जाने वाले समाज हैं। पीएसी और पुलिसवालों ने तो कर्फ्यू की आड़ में जमकर अराजकता फैलाई। यहां तक कि दुकानों, खोखों में खुद ही लूटपाट करने लगे। लोगों में इससे गुस्सा और गहराया। 

कर्फ्यू के दौरान एक सुबह खिड़की से झांककर देखा। सड़क के किनारे दीवारों पर चॉक और कोयले से 'पीएसी-गो बैक' के नारे लिखे हुए थे। इससे हमें यह संकेत मिल गया था कि पूरा शहर गुस्से में है। उस गुस्से की तीव्रता का मोटा-मोटा अंदाज़ा लग गया था। कब फट पड़े पता नहीं। जब कर्फ्यू में पहली ढील मिली तो हम सब बाजार की तरफ टूट पड़े। ज़रूरी चीजें ख़रीदी। कर्फ्यू में ढील के दौरान लोगों ने अपनी-अपनी तकलीफें एक-दूसरे से साझा कीं। कर्फ्यू के ही दौरान एक दिन दिल्ली से एक केंद्रीय पर्यवेक्षक दल आया था। लोगों ने उनसे पुलिसिया अत्याचार की शिकायत की. बात ऊपर तक पहुंच गई। इसका असर ये हुआ कि कुछ दिन बाद पीएसी को हटाकर सीआरपीएफ, आरएएफ इत्यादि केंद्रीय बलों की तैनाती हो गई। लोगों ने कुछ राहत महसूस की। वो इसलिए क्योंकि केंद्रीय बलों ने पब्लिक के साथ बुरा बर्ताव नहीं किया। उनकी तकलीफों को समझने की कोशिश की। इसकी एक वजह शायद यह भी थी कि केंद्रीय बलों में अलग-अलग प्रांतों के सिपाही थे। उन्होंने हमें दुश्मन की तरह ट्रीट नहीं किया।

आंदोलन के दौर की एक कविता. सौ.- धाद ग्रंथ आयोजन :1
जब कोर्ट ने कहा, राज्य का आतंकवाद

ये सब 2 अक्तूबर 1994 की घटना की परिणिति थी। जिसके बारे में 1996 में इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस रवि एस धवन ने अपने फ़ैसले में लिखा था- 'जो घाव लगे और जानें गईं। वे प्रतिरोध की राजनीति की कीमत थीं।' जस्टिस धवन ने तो मुजफ्फरनगर कांड को राज्य का आतंकवाद करार दिया था। यही नहीं, उसी खण्डपीठ के दूसरे जज जस्टिस ए.बी.श्रीवास्तव ने लिखा- "महिलाओं का शीलभंग करना, बलात्कार करना, महिलाओं के गहने और अन्य सामान लूटना, वहशीपन की निशानी है जोकि आदिम पुरुषों में भी नहीं पाई जाती थी और यह देश के चेहरे पर एक स्थाई धब्बे की तरह रहेगा।" 22 साल हो गए हैं तब से, धब्बा ज्यों का त्यों है। जजों की खण्डपीठ की टिप्पणी सही साबित हुई है। गुनहगारों को इस देश का कानून आज तक सज़ा नहीं दिला पाया। 

कुछ समय पहले इन मुकदमों की खोजबीन करने पत्रकार राहुल कोटियाल मुज़फ़्फ़रनगर की अदालतों में गए थे। उन्होंने इन मुकदमों में से एक, ‘सीबीआई बनाम राधा मोहन द्विवेदी व अन्य’ के बारे में एक जगह लिखा है- "ये सबसे गंभीर मामला था. 16 आंदोलनकारी महिलाओं के साथ हुए अपराधों के इस मामले में कई महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार और कुछ के साथ तो पुलिस हिरासत में लिए जाने के बाद भी बलात्कार करने के आरोप थे. लेकिन साल 2006 से ही यह मामला पूरी तरह से बंद पड़ा हुआ है और इसकी खबर लेने वाला कोई नहीं है।"

तब से पहाड़ के लोगों के लिए दो अक्तूबर के मायने बदल गए। आप पहाड़ में जाएंगे तो पाएंगे कि दो अक्टूबर के दिन को गांधी जयंती के बजाय मुजफ्फरनगर कांड के लिए याद किया जाता है। वरना तो उससे पहले तक स्कूली दिनों में 2 अक्तूबर का मतलब होता था गांधी जयंती, प्रभात फेरी, देशभक्ति के गीत, स्कूल में सांस्कृतिक कार्यक्रम, सरकारी दफ़्तरों में झंडारोहण और फिर अंत में बंटने वाला लड्डू। साल के तीन राष्ट्रीय पर्वों में से एक पर्व- दो अक्तूबर। लेकिन अब दो अक्तूबर की तारीख का ज़िक्र ही एक अज़ीब तरह की सिरहन पैदा करता है। उत्तराखंड के लिए 1994 के बाद से दो अक्तूबर के मायने पूरी तरह से बदल चुके हैं।

इस हमाम में सभी दल नंगे हैं
 
आंदोलन के दौरान निकला एक पोस्टर
असल में ज़ख़्म हरे इसलिए भी हैं क्योंकि मुजफ्फरनगर कांड के गुनहगार अब तक कानूनी शिकंजे से बाहर हैं। जिन पुलिसवालों और जिन अफसरों ने ये जघन्य कांड किया उन्हें बाद में तरक्की मिली। यहां तक कि बीजेपी की सरकार ने भी उन्हें प्रमोशन दिया। मुजफ्फरनगर कांड के मुख्य आरोपी डीआईजी बुआ सिंह को न सिर्फ तत्कालीन मुलायम सरकार ने बचाया, बल्कि बाद में राजनाथ सिंह के मुख्यमंत्रित्वकाल में बुआ सिंह को पुलिस महकमे में बड़ी तरक्की मिली। जो डीएम अनंत कुमार सिंह इस घटना के लिए ज़िम्मेदार था और जिसने उस वक्त ये बयान दिया कि-'कोई भी महिला आधी रात को गन्ने के खेत में मिलेगी तो उससे रेप ही होगा', उसे भी यूपी की सरकारों ने संरक्षण दिया। राजनाथ सिंह ने तो अनंत कुमार सिंह के खिलाफ केस चलाने की इजाज़त देने से ही इनकार कर दिया और उसे तरक्की देकर अपना प्रमुख सचिव बनाया।

उत्तराखण्ड आंदोलन के दौरान जनजागरण के गीत गाते कई जत्थे निकला करते थे। प्रभातफेरियां होती थी। पौड़ी ज़िले के श्रीनगर में ऐसे ही एक जत्थे की अगुआई करते लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी (सफेद स्वेटर में) उनके दाहिने हाथ की तरफ खंजरी लिए, नीले जैकेट में उनकी संगत करता मैं। साथ में कुछ अन्य संस्कृतिकर्मी, रंगकर्मी और पत्रकार साथी।

उत्तराखण्डियों को अब भी लगता है कि मुलायम सिंह हों, मायावती हों या राजनाथ सिंह हों, इन सभी मुख्यमंत्रियों ने न सिर्फ पूरी आवाम को चिढ़ाया और बल्कि उसके ज़ख्मों पर नमक छिड़कने का काम किया। मुलायम सिंह यादव तो उत्तराखण्ड की अवाम के लिए इतने बड़े खलनायक हैं कि उत्तराखण्ड के जिस-जिस नेता का भी मुलायम या उनकी पार्टी से नाम जुड़ा, उसका राजनीतिक करियर तबाह हो गया। कोई नहीं उबर पाया। अगर कानून सज़ा नहीं देगा तो जनता अपना गुस्सा कहीं तो प्रकट करेगी। हालांकि मुलायम सिंह यादव बाद में उत्तराखण्डियों के समधी भी बने। उनकी दो-दो बहुएं उत्तराखण्ड की हैं। लेकिन पहाड़ी समाज ने मुलायम सिंह को कभी माफ़ नहीं किया। मुलायम ही नहीं, राजनाथ सिंह ने भी अपने बेटे की शादी उत्तराखण्ड की बेटी से करवाई। लेकिन इन दोनों बड़े नेताओं ने उत्तराखण्डी अवाम के गुनहगारों को न सिर्फ बचाया, बल्कि तरक्की देकर बता दिया कि उनकी प्राथमिकता में क्या है और कौन है। तो क्या व्यवस्था से गहरे ज़ख़्म खाने वाले पहाड़ी समाज को इंसाफ़ कभी नहीं मिलेगा?

मानचित्र सौजन्य : धाद ग्रंथ आयोजन-1

आज भी सिहरन पैदा करता है वो 2 अक्तूबर आज भी सिहरन पैदा करता है वो 2 अक्तूबर Reviewed by Manu Panwar on October 02, 2016 Rating: 5

4 comments

  1. ये ऐसा घाव है जो हमेशा हरा रहेगा...आपके लेख पढ़कर वो दिन याद आ गया जब कुमाऊं और हमारे तरफ बीरोंखाल से भी बहुत बसें गयी थी जैसा कि आपने ऊपर उल्‍लेख कर ही दिया है उनके साथ ठीक वही हुआ।

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  2. यह जख्म हरा रहे भाई

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  3. मुलायम सिंह यादव तब तत्कालीन मुख्यमंत्री थे वह चाहते तो ये सब चीजें होने से बच सकती थी मगर यही वो आदमी हैं जिनके कारण मुजफ्फरनगर कांड हुआ ओर उत्तराखंड के कई नागरिकों की जान चली गई! उत्तराखंड के उन वीर शहीदों को शत शत नमन 🙏🙏🙏

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