भारत-पाकिस्तान में संगीत के सुर एक लेकिन रिश्ते बेसुरे क्यों हैं?
मनु पंवार
ग़ुलाम अली साहब का तब से आशिक़ हूं, जब से होश संभाला...। इस आशिक़ी में पड़ने के बाद तो होश न रहा।...बेरोज़गारी के दिनों में भी उनके कैसेट जमकर ख़रीदे...उनको ख़ूब सुना। इस दीवानगी ने खर्चा बहुत करा दिया, वो भी मुफ़लिसी के दिनों में। 'चुपके-चुपके' ग़ज़ल के चक्कर में फ़िल्म 'निक़ाह' पिक्चर हॉल में कई बार देखी। 'चमकते चांद को टूटा हुआ तारा बना डाला...' ग़ज़ल के चक्कर में फ़िल्म 'आवारगी' बार-बार देखी। घर में बड़े भाई वीरेंद्र पंवर ग़ुलाम अली को अस्सी के दशक से सुन रहे थे...सो, ग़ुलाम अली साहब के सुर कच्ची उम्र में ही अपने कानों में पड़ चुके थे। लेकिन समझ बाद में आए।
(डिस्क्लेमर : भारत-पाकिस्तान के बीच रिश्तों और तनाव का ज़िक्र होता है तो कई लोगों को कई चीज़ें याद आती हैं. आतंकवाद, कश्मीर, हाफिज सईद इत्यादि. लेकिन हमें ग़ुलाम अली जैसे फनकार याद आते हैं. यादों के गलियारे से आज मशहूर ग़ज़ल गायक ग़ुलाम अली की बात. बात थोड़ा पुरानी हो गई लेकिन संदर्भ नए हैं. और हां, सवाल भी वहीं के वहीं बने हुए हैं. )
ग़ुलाम अली साहब का तब से आशिक़ हूं, जब से होश संभाला...। इस आशिक़ी में पड़ने के बाद तो होश न रहा।...बेरोज़गारी के दिनों में भी उनके कैसेट जमकर ख़रीदे...उनको ख़ूब सुना। इस दीवानगी ने खर्चा बहुत करा दिया, वो भी मुफ़लिसी के दिनों में। 'चुपके-चुपके' ग़ज़ल के चक्कर में फ़िल्म 'निक़ाह' पिक्चर हॉल में कई बार देखी। 'चमकते चांद को टूटा हुआ तारा बना डाला...' ग़ज़ल के चक्कर में फ़िल्म 'आवारगी' बार-बार देखी। घर में बड़े भाई वीरेंद्र पंवर ग़ुलाम अली को अस्सी के दशक से सुन रहे थे...सो, ग़ुलाम अली साहब के सुर कच्ची उम्र में ही अपने कानों में पड़ चुके थे। लेकिन समझ बाद में आए।
क्या गायिकी है..! क्या रियाज़ है..! क्या गला पाया है..! लफ़्ज़ों को सुर से बयां करने का क्या अंदाज़ है...क्लासिकल मॉसिकी के जानकारों और न जाने वालों दोनों को उन्होंने अपना मुरीद बनाया। मेंहदी हसन साहब में जो ठहराव और विस्तार की गायिकी थी, ग़ुलाम अली ने उससे अलहदा रास्ता बनाया...उन्होंने रोमांचित कर देने वाली लोकप्रिय शैली बनाई। वो ज़्यादा पॉपुलर हुए..।
उनसे शिमला के ओबरॉय सेसिल होटल में मुलाक़ात हुई। शिमला ही इक शहर है जहां ओबरॉय ग्रुप के तीन बड़े होटल हैं...ओबरॉय सेसिल, ओबरॉय क्लार्क्स और वाइल्ड फ्लावर हॉल...। ओबरॉय ग्रुप के संस्थापक राय बहादुर मोहन सिंह ओबरॉय ब्रिटिशकालीन होटल सेसिल में क्लर्क थे। 50 रुपये की माहवार तनखा पर। बाद में वह होटल के मालिक बने। वह एक अलग कहानी है। उस पर फिर कभी।
मैंने ग़ुलाम अली साहब से कहा ग़ज़ल तो पहले से ही गाई जा रही है। बड़े-बड़े सूरमा हुए। आप इस मैदान में क्या सोचकर उतरे थे? खां साहब बोले, मैंने तो क्लासिकल गायिकी सीखी थी. लेकिन ग़ज़ल में लफ़्ज़ों की जो ताक़त है, वो मुझे इस गायिकी की ओर ले गई। मिसाल के लिए उन्होंने गुनगुनाया-
'तूने कुछ भी न कहो हो जैसे,
मेरे ही दिल की सदा (आवाज़) हो जैसे।'
हमारी बातचीत चल ही रही थी। तभी दो-तीन पत्रकार न जाने कहां से टपक पड़े। खां साहब के मैनेजर ने उन्हें गलियारे में हो रोक लिया। कहा, खां साहब और लोगों से बातचीत नहीं कर पाएंगे। उनका गला ख़राब है। अभी शाम को प्रोग्राम भी देना है। ये बात ग़ुलाम अली साहब के कान में पड़ गई। वो फ़ौरन उठे। गलियारे में गए। मैनेजेर से बोले- "अरे भाई, ख़ुदा के वास्ते ऐसा मत कहो...गला सचमुच ख़राब हो जाएगा।'' बातचीत फिर से पटरी पर लौटी। मैंने पूछा- ख़ां साहब, आप तो बड़े रियाज़ी आदमी हैं। ऐसे कैसे गला ख़राब हो जाएगा? बोले- अरे भाई...लगातार इस बारे में बात करोगे तो साइकोलॉजिकली असर पड़ जाता है।
सिर्फ मौसिक़ी ही है जिसे भारत-पाकिस्तान की न सरहदें रोक पाई, न राजनीति और न मज़हब। इसकी एक वजह है कि सुर सात ही हैं। ताल भी वहीं हैं। जो सुर यहां लगते हैं, वही वहां भी। कभी ऐसा नहीं सुना कि पाकिस्तान ने सुरों की संख्या 7 से घटाकर 5 कर दी हो। उनके नाम भी वही हैं- सा-षड़्ज, रे-ऋषभ, ग-गांधार, म-मध्यम, प-पंचम, ध-धैवत और नि-निषाद। ये संस्कृतनिष्ठ हिंदी नाम हैं। ऐसा भी नहीं हुआ कि पाकिस्तान में ‘षड़्ज’ का धर्मांतरण करके उसका नाम ‘सरफराज़’ रख दिया गया हो।
तो सुर एक है इसीलिए मेंहदी हसन हों, ग़ुलाम अली हों, रेशमा हों, सलमा आगा हों, उस्ताद नुसरत फ़तेह अली ख़ान हों, राहत फ़तेह अली हों, अदनाम सामी हों, आतिफ़ असलम या अली ज़फ़र हों...ये सब सरहदों से परे हैं। वो हमारे भी कण्ठों में बसे हैं। मैंने ग़ुलाम अली से पूछा- खां साहब, फिर दोनों मुल्कों के बीच ये झगड़ा क्यूं है? वे बोले- कुछ ताक़तें हैं जो हमें लड़ाए रखना चाहती हैं। हम लड़ते रहते हैं। उनका क़ारोबार चलता रहता है।
ग़ुलाम अली साहब से तय वक़्त से ज़्यादा बातचीत हो गई।...बातचीत का अंतिम चरण आ चुका था। अब मैं पत्रकार से प्रशंसक वाली मुद्रा में आ गया था। वो इसलिए क्योंकि उत्तराखण्ड के पहाड़ी गांव से शिमला जैसे समृद्ध शहर में आए मेरे जैसे लड़के के लिए गुलाम अली से मिलना किसी सपने के सच होने सरीखा था। वो भी तब जबकि आप उन्हें बचपन से सुनते आ रहे हों।
मैंने अपनी नोटबुक उनकी ओर बढ़ाई। उनका ऑटोग्राफ लिया। साथ ही ये भी गुजारिश भी की कि- खां साहब, इसमें अपना एड्रेस लिख दीजिए। मेरे काम आएगा। उन्होंने मेरा आग्रह माना। एड्रेस लिखा। मेरी नोटबुक लौटाई। मैंने उनके लिखे पर नज़र डाली तो मेरे लिए काला अक्षर भैंस बराबर...। पूरा एड्रेस उर्दू में था। सिर्फ़ लाहौर ब्रेकेट में अंग्रेज़ी में लिखा हुआ था। मैंने भी चुपचाप नोटबुक जेब में डाल दी और विदा ली।
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गुलाम अली ने मेरी नोटबुक में अपना पता और फोन नंबर लिखा लेकिन पता उर्दू में था |
मैंने अपनी नोटबुक उनकी ओर बढ़ाई। उनका ऑटोग्राफ लिया। साथ ही ये भी गुजारिश भी की कि- खां साहब, इसमें अपना एड्रेस लिख दीजिए। मेरे काम आएगा। उन्होंने मेरा आग्रह माना। एड्रेस लिखा। मेरी नोटबुक लौटाई। मैंने उनके लिखे पर नज़र डाली तो मेरे लिए काला अक्षर भैंस बराबर...। पूरा एड्रेस उर्दू में था। सिर्फ़ लाहौर ब्रेकेट में अंग्रेज़ी में लिखा हुआ था। मैंने भी चुपचाप नोटबुक जेब में डाल दी और विदा ली।
भारत-पाकिस्तान में संगीत के सुर एक लेकिन रिश्ते बेसुरे क्यों हैं?
Reviewed by Manu Panwar
on
August 18, 2019
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