विकास की कब्रिस्तान यात्रा

मनु पंवार

यह बहस का मुद्दा हो सकता है कि भला श्मशान और कब्रिस्तान का यूपी के चुनाव से क्या वास्ता? क्योंकि किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र में चुनाव तो ज़िंदादिल लोगों का ही काम होता है. कई बरस पहले का डॉ. राममनोहर लोहिया का वह चर्चित वक्तव्य तो याद ही होगा, "ज़िंदा कौमें पांच साल इंतज़ार नहीं करतीं." अगर मुर्दों को वोटिंग राइट होता और वो लोकतंत्र को प्रभावित कर रहे होते, तो डॉ. लोहिया कतई ज़िंदा कौमों का हवाला न देते. 

इसका एक मतलब यह भी है कि मुर्दों को चुनाव करने का हक़ हासिल नहीं है. इस फॉर्मूले के हिसाब से उन्हें ज़िंदा लोगों या ज़िंदा कौमों के मामले में दखल देने का भी अधिकार नहीं. यह बात तो सभी जानते ही हैं कि मरने के बाद आदमी में जान नहीं रहती. वैसे भी जब शरीर बेजान हो जाता है, तो आदमी मुर्दा हो जाता है या उसे मरा हुआ मान लिया जाता है. उदय प्रकाश की एक कविता बड़ी याद आ रही है-

'आदमी 
मरने के बाद
कुछ नहीं सोचता

आदमी
मरने के बाद
कुछ नहीं बोलता

कुछ नहीं सोचने और
कुछ नहीं बोलने पर
आदमी मर जाता है.'

इस कविता के निहितार्थ साफ हैं. उदय प्रकाश साहब ने कई बरस पहले आगाह कर दिया था. कुछ नहीं सोचोगे और कुछ नहीं बोलोगे, तो मुर्दा हो जाओगे. इसीलिए अपन ज़िंदगी की तमाम आपाधापी के बीच भी कुछ टाइम निकाल के सोच लेते हैं. ज़माने को अपने ज़िंदा होने के सबूत देने पड़ते हैं. लेकिन मुर्दों को यह सुविधा हासिल है कि वे मरने के बाद कुछ न बोलें और कुछ न सोचें. उनसे कुछ न पूछा जाए. यह उनका अपना 'मुर्दाधिकार' है. वो जहां चाहें वहां पसरकर पड़े रहें. चाहे वह कब्रिस्तान हो या श्मशान. ज़िंदा इंसानों से अपेक्षा की जाती है कि वो मुर्दों की नींद में खलल न डालें.

लेकिन भला राजनीति कहां मानने वाली. अब देखिए न, गड़े मुर्दे तो उखाड़े ही जा रहे थे, अब मुर्दों की आरामगाह को भी चुनावी कैंपेन में न घसीट लिया. यह भी नहीं सोचा कि इससे मुर्दों का आराम हराम हो रहा है. मरने के बाद तो कम से कम उन्हें चैन से सोने दिया जाना चाहिए. लेकिन हैरानी इस बात की है कि जिनमें जीवन है, उनको अपनी नैय्या पार लगाने के लिए मुर्दों की ज़रूरत पड़ रही है! 

विकास की कब्रिस्तान यात्रा विकास की कब्रिस्तान यात्रा Reviewed by Manu Panwar on February 20, 2017 Rating: 5

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