विश्वास, अविश्वास और कुमार विश्वास !
मनु पंवार
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कार्टून साभार: Google |
विश्वास और अविश्वास के बीच सिर्फ 'अ' अक्षर का ही फासला है। कभी-कभी बाहरी हवाओं के झोंके से यह 'अ' अक्षर हिलने लगता है, तो विश्वास और अविश्वास के बीच फासला मिटने लगता है। विश्वास किस पर है और अविश्वास किस पर, दूसरे को यह पता ही नहीं चल पाता। हालांकि 'विश्वास' अपने आप में संपूर्ण शब्द है। लेकिन कई बार ऐसी सिचुएशन आती है कि विश्वास और अविश्वास के बीच 'कुछ' आ जाने से उसके निहितार्थ बदल जाते हैं। जैसे इन दिनों विश्वास और अविश्वास के बीच कुमार विश्वास आ गए हैं।
कुमार विश्वास किसी के लिए सचमुच के विश्वास हैं, तो किसी के लिए अविश्वास। मल्लब किसी के लिए 'कुमार' एक ऐसा विश्वास हैं, जो अपनी गतिविधियों, बोल-वचनों और अपने अंदाज़ से कई बार अपनों से ज़्यादा ग़ैरों के लिए विश्वास पैदा करते हैं। तो किसी के लिए 'कुमार' ऐसा विश्वास हैं, जिसे 'कोई पागल समझता है, कोई दीवाना कहता है।'
इसलिए हमें लगता है कि कुमार विश्वास एक अलग तरह की शैली के विश्वास है। कई बार तो सिचुएशन ऐसी भी आ जाती है जी कि शक होने लगता है कि विश्वास की मौजूदगी है भी और नहीं भी है। इसलिए कुमार विश्वास को आभासी विश्वास भी कह सकते हैं। आभासी विश्वास के अपने ख़तरे भी हैं। लेकिन उसमें एक सुविधा यह रहती है कि कइयों को वो सच लगता है, तो कइयों को नहीं। मल्लब जिसको विश्वास करना है करे, जिसको नहीं करना वो ना करे। इस सुविधा और दुविधा का कई बार उस आभासी विश्वास को फ़ायदा भी होता है और नुकसान भी।
लेकिन जैसे कि पहले कहा जा चुका है, विश्वास अपने आप में संपूर्ण है। उसका अपना अस्तित्व है। अपना वज़ूद है। तभी उस पर भरोसा जगता है। लेकिन खासकर राजनीति में विश्वास से पहले 'कुमार' जुड़ जाता है, तो न जाने क्यों उस सिचुएशन में विश्वास डगमगाने लगता है। डोलने लगता है। हिलता हुआ दिखता है। उसका आत्मविश्वास लड़खड़ाता दिखता है। ऐसा लगता है कि विश्वास को खुद से पहले किसी का नाम का जुड़ना पसंद नहीं है। कुमार का भी नहीं। विश्वास को किसी के साथ ऐसा गठबंधन रास नहीं आता। मुझे बेनिटो मुसोलिनी का एक चर्चित उद्धरण याद आ रहा है- "दूसरों पर विश्वास करना अच्छा है लेकिन ऐसा न करना कहीं ज्यादा अच्छा है।"
कुमार विश्वास किसी के लिए सचमुच के विश्वास हैं, तो किसी के लिए अविश्वास। मल्लब किसी के लिए 'कुमार' एक ऐसा विश्वास हैं, जो अपनी गतिविधियों, बोल-वचनों और अपने अंदाज़ से कई बार अपनों से ज़्यादा ग़ैरों के लिए विश्वास पैदा करते हैं। तो किसी के लिए 'कुमार' ऐसा विश्वास हैं, जिसे 'कोई पागल समझता है, कोई दीवाना कहता है।'
इसलिए हमें लगता है कि कुमार विश्वास एक अलग तरह की शैली के विश्वास है। कई बार तो सिचुएशन ऐसी भी आ जाती है जी कि शक होने लगता है कि विश्वास की मौजूदगी है भी और नहीं भी है। इसलिए कुमार विश्वास को आभासी विश्वास भी कह सकते हैं। आभासी विश्वास के अपने ख़तरे भी हैं। लेकिन उसमें एक सुविधा यह रहती है कि कइयों को वो सच लगता है, तो कइयों को नहीं। मल्लब जिसको विश्वास करना है करे, जिसको नहीं करना वो ना करे। इस सुविधा और दुविधा का कई बार उस आभासी विश्वास को फ़ायदा भी होता है और नुकसान भी।
लेकिन जैसे कि पहले कहा जा चुका है, विश्वास अपने आप में संपूर्ण है। उसका अपना अस्तित्व है। अपना वज़ूद है। तभी उस पर भरोसा जगता है। लेकिन खासकर राजनीति में विश्वास से पहले 'कुमार' जुड़ जाता है, तो न जाने क्यों उस सिचुएशन में विश्वास डगमगाने लगता है। डोलने लगता है। हिलता हुआ दिखता है। उसका आत्मविश्वास लड़खड़ाता दिखता है। ऐसा लगता है कि विश्वास को खुद से पहले किसी का नाम का जुड़ना पसंद नहीं है। कुमार का भी नहीं। विश्वास को किसी के साथ ऐसा गठबंधन रास नहीं आता। मुझे बेनिटो मुसोलिनी का एक चर्चित उद्धरण याद आ रहा है- "दूसरों पर विश्वास करना अच्छा है लेकिन ऐसा न करना कहीं ज्यादा अच्छा है।"
विश्वास, अविश्वास और कुमार विश्वास !
Reviewed by Manu Panwar
on
April 29, 2017
Rating:

bhai aapki lekhni ka jabab nahi
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
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