...जब गला ख़राब होने की बात पर नाराज़ हुए ग़ुलाम अली
मनु पंवार
(यूं तो यह मेरे ब्लॉग के मिजाज़ से मेल नहीं खाता, लेकिन यादों के खज़ाने में कई ऐसी चीज़ें हैं जिन्हें साझा करने का मन है। वो चीजें हैं, मेरी कुछ अच्छे लोगों से अच्छी मुलाकातें। अलग-अलग कालखण्डों में हुई इन मुलाकातों में कई दिलचस्प बातें भी हैं, कुछ रोचक किस्से भी हैं। वो ज्यादा अहम हैं, इसलिए आज से एक सीरीज़ शुरू कर रहा हूं। 'वो यादों के गलियारे' नाम से। उसमें पहली शख्सियत हैं मशहूर गज़ल गायक ग़ुलाम अली।)
ग़ुलाम अली का तब से आशिक़ हूं, जब से होश संभाला। इस आशिक़ी में पड़ने के बाद तो होश न रहा। बेरोज़गारी के दिनों में भी उनके कैसेट जमकर ख़रीदे...उनको ख़ूब सुना। इस दीवानगी ने खर्चा बहुत करा दिया, वो भी मुफ़लिसी के दिनों में। 'चुपके-चुपके' ग़ज़ल के चक्कर में फ़िल्म 'निक़ाह' पिक्चर हॉल में कई बार देखी। 'चमकते चांद को टूटा हुआ तारा बना डाला...' ग़ज़ल के चक्कर में फ़िल्म 'आवारगी' बार-बार देखी। घर में बड़े भाई वीरेंद्र पंवार ग़ुलाम अली को अस्सी के दशक से सुन रहे थे...सो, ग़ुलाम अली साहब के सुर कच्ची उम्र में ही अपने कानों में पड़ चुके थे। लेकिन समझ बाद में आए।
क्या गायिकी है! क्या रियाज़ है ! क्या गला पाया है ! लफ़्ज़ों को सुर से बयां करने का क्या अंदाज़ है ! क्लासिकल मॉसिकी के जानकारों और न जाने वालों दोनों को उन्होंने अपना मुरीद बनाया। मेंहदी हसन साहब में जो ठहराव और विस्तार की गायिकी थी, ग़ुलाम अली ने उससे अलहदा रास्ता बनाया...उन्होंने रोमांचित कर देने वाली लोकप्रिय शैली बनाई।..वो ज़्यादा पॉपुलर हुए..।
उनसे शिमला के ओबरॉय सेसिल होटल में मुलाक़ात हुई। शिमला ही इक शहर है जहां ओबरॉय ग्रुप के तीन बड़े होटल हैं...ओबरॉय सेसिल, ओबरॉय क्लार्क्स और वाइल्ड फ्लावर हॉल...। ओबरॉय ग्रुप के संस्थापक राय बहादुर मोहन सिंह ओबरॉय ब्रिटिशकालीन होटल सेसिल में क्लर्क थे, 50 रुपये की माहवार तनखा पर। बाद में वह होटल के मालिक बने।
मैंने ग़ुलाम अली साहब से कहा ग़ज़ल तो पहले से ही गाई जा रही है। बड़े-बड़े सूरमा हुए। आप इस मैदान में क्या सोचकर उतरे? खां साहब बोले, मैंने सोचा कि ग़ज़ल में लफ़्ज़ों को तवज्जो मिलनी चाहिए। लफ़्ज़ों में बड़ी ताक़त है। मिसाल के लिए उन्होंने गुनगुनाया-
'तूने कुछ भी न कहो हो जैसे,
मेरे ही दिल की सदा (आवाज़) हो जैसे।'
हमारी बातचीत चल ही रही थी। तभी दो-तीन पत्रकार न जाने कहां से टपक पड़े। खां साहब के मैनेजर ने उन्हें गलियारे में हो रोक लिया। कहा, खां साहब और लोगों से बातचीत नहीं कर पाएंगे। उनका गला ख़राब है। अभी शाम को प्रोग्राम भी देना है। ये बात ग़ुलाम अली साहब के कान में पड़ गई। वो फ़ौरन उठे। गलियारे में गए। मैनेजेर से बोले- "अरे भाई, ख़ुदा के वास्ते ऐसा मत कहो...गला सचमुच ख़राब हो जाएगा।'' बातचीत फिर से पटरी पर लौटी। मैंने पूछा- ख़ां साहब, आप तो बड़े रियाज़ी आदमी हैं। ऐसे कैसे गला ख़राब हो जाएगा? बोले- अरे भाई...लगातार इस बारे में बात करोगे तो साइकोलॉजिकली असर पड़ जाता है।
(जारी.....)
(यूं तो यह मेरे ब्लॉग के मिजाज़ से मेल नहीं खाता, लेकिन यादों के खज़ाने में कई ऐसी चीज़ें हैं जिन्हें साझा करने का मन है। वो चीजें हैं, मेरी कुछ अच्छे लोगों से अच्छी मुलाकातें। अलग-अलग कालखण्डों में हुई इन मुलाकातों में कई दिलचस्प बातें भी हैं, कुछ रोचक किस्से भी हैं। वो ज्यादा अहम हैं, इसलिए आज से एक सीरीज़ शुरू कर रहा हूं। 'वो यादों के गलियारे' नाम से। उसमें पहली शख्सियत हैं मशहूर गज़ल गायक ग़ुलाम अली।)
ग़ुलाम अली का तब से आशिक़ हूं, जब से होश संभाला। इस आशिक़ी में पड़ने के बाद तो होश न रहा। बेरोज़गारी के दिनों में भी उनके कैसेट जमकर ख़रीदे...उनको ख़ूब सुना। इस दीवानगी ने खर्चा बहुत करा दिया, वो भी मुफ़लिसी के दिनों में। 'चुपके-चुपके' ग़ज़ल के चक्कर में फ़िल्म 'निक़ाह' पिक्चर हॉल में कई बार देखी। 'चमकते चांद को टूटा हुआ तारा बना डाला...' ग़ज़ल के चक्कर में फ़िल्म 'आवारगी' बार-बार देखी। घर में बड़े भाई वीरेंद्र पंवार ग़ुलाम अली को अस्सी के दशक से सुन रहे थे...सो, ग़ुलाम अली साहब के सुर कच्ची उम्र में ही अपने कानों में पड़ चुके थे। लेकिन समझ बाद में आए।
क्या गायिकी है! क्या रियाज़ है ! क्या गला पाया है ! लफ़्ज़ों को सुर से बयां करने का क्या अंदाज़ है ! क्लासिकल मॉसिकी के जानकारों और न जाने वालों दोनों को उन्होंने अपना मुरीद बनाया। मेंहदी हसन साहब में जो ठहराव और विस्तार की गायिकी थी, ग़ुलाम अली ने उससे अलहदा रास्ता बनाया...उन्होंने रोमांचित कर देने वाली लोकप्रिय शैली बनाई।..वो ज़्यादा पॉपुलर हुए..।
उनसे शिमला के ओबरॉय सेसिल होटल में मुलाक़ात हुई। शिमला ही इक शहर है जहां ओबरॉय ग्रुप के तीन बड़े होटल हैं...ओबरॉय सेसिल, ओबरॉय क्लार्क्स और वाइल्ड फ्लावर हॉल...। ओबरॉय ग्रुप के संस्थापक राय बहादुर मोहन सिंह ओबरॉय ब्रिटिशकालीन होटल सेसिल में क्लर्क थे, 50 रुपये की माहवार तनखा पर। बाद में वह होटल के मालिक बने।
मैंने ग़ुलाम अली साहब से कहा ग़ज़ल तो पहले से ही गाई जा रही है। बड़े-बड़े सूरमा हुए। आप इस मैदान में क्या सोचकर उतरे? खां साहब बोले, मैंने सोचा कि ग़ज़ल में लफ़्ज़ों को तवज्जो मिलनी चाहिए। लफ़्ज़ों में बड़ी ताक़त है। मिसाल के लिए उन्होंने गुनगुनाया-
'तूने कुछ भी न कहो हो जैसे,
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हमारी बातचीत चल ही रही थी। तभी दो-तीन पत्रकार न जाने कहां से टपक पड़े। खां साहब के मैनेजर ने उन्हें गलियारे में हो रोक लिया। कहा, खां साहब और लोगों से बातचीत नहीं कर पाएंगे। उनका गला ख़राब है। अभी शाम को प्रोग्राम भी देना है। ये बात ग़ुलाम अली साहब के कान में पड़ गई। वो फ़ौरन उठे। गलियारे में गए। मैनेजेर से बोले- "अरे भाई, ख़ुदा के वास्ते ऐसा मत कहो...गला सचमुच ख़राब हो जाएगा।'' बातचीत फिर से पटरी पर लौटी। मैंने पूछा- ख़ां साहब, आप तो बड़े रियाज़ी आदमी हैं। ऐसे कैसे गला ख़राब हो जाएगा? बोले- अरे भाई...लगातार इस बारे में बात करोगे तो साइकोलॉजिकली असर पड़ जाता है।
(जारी.....)
...जब गला ख़राब होने की बात पर नाराज़ हुए ग़ुलाम अली
Reviewed by Manu Panwar
on
May 20, 2017
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ReplyDeleteWas Erforderlichkeit ich nach der Augenlidkorrektur berücksichtigen? Das Eine und auch das Andere
ReplyDeleteDeutsche Mark Facelifting, welcher Faltenunterspritzung
durch Botox, welcher Nasenkorrektur darüber hinaus der Fettabsaugung
ist die Augenlidkorrektur eine der Länge nach Möglichkeiten,
um unschöne Mängel am eigenen Leib zu auflösen oder zumindest zu erleichtern. Die häufigsten Gründe für eine Nasenkorrektur sind Chip so genannten Höckernasen, benachbart denen gegenseitig aufwärts dem Nasenrücken eine „Beule“ befindet.
Seit dem Zeitpunkt hat Chip Privatklinik KIPROV kreisrund 10.000 Fettabsaugungen durchgeführt darüber
ReplyDeletehinaus einander hinauf die Formung des Körpers spezialisiert.
Welches ist vornehmlich Ablehnung kleiner qua an anderen, un...
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