चुनाव आयोग ने भावुक कर दिया!
मनु पंवार
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पूर्व केंद्रीय मंत्री दिवंगत प्रमोद महाजन का इंटरव्यू करता यह ख़ाकसार फोटो साभार: रमेश शर्मा |
इस फोटो में ये ज़्यादा महत्वपूर्ण नहीं है कि कौन-कौन बंदे बैठे हैं. वो तो पहचान ही गए होंगे, लेकिन ज़रा फोटो के पीछे खिड़की के बाहर नज़र दौड़ाएं. आपको पेड़ पर कुछ दमकती हुई चीज़ दिख रही होगी. यह धूप नहीं है, बर्फ है. पेड़ों के ऊपर लदी हुई बर्फ. यह शिमला की जनवरी या फरवरी 2003 की तस्वीर है. क़रीब पंद्रह साल पहले की. तब भी आज ही की तरह हिमाचल प्रदेश में चुनावी दिन चल रहे थे. तब यह ख़ाकसार उन दिनों वहां 'अमर उजाला' अख़बार में रिपोर्टर था. आज दिवंगत प्रमोद महाजन की जयंती पर फेसबुक ने मेरी इस पुरानी तस्वीर की याद दिलाई, तो इसके पीछे का किस्सा भी ताज़ा हो उठा. किस्सा आज के लिए भी प्रासंगिक है, इसलिए शेयर करने का मोह नहीं छोड़ पा रहा हूं.
आपको पता ही होगा, चुनाव आयोग ने इस बार गुजरात के चुनावों की तारीखों का ऐलान हिमाचल प्रदेश के साथ नहीं किया. वजह तब नहीं बताई गई. लिहाजा इस पर कई सवाल भी उठे. चुनाव आयोग की खासी किरकिरी भी हुई. इतनी ज्यादा आलोचना हुई कि चुनाव आयोग को जवाब देना भारी पड़ गया. कुछ दिन बाद किसी तरह हिम्मत जुटाकर मुख्य चुनाव आयुक्त ए.के. जोती साहब को बाक़ायदा सफाई देनी पड़ी. लगातार उठ रहे सवालों के बीच उनकी एक मासूम दलील सामने आई. बोले कि गुजरात में कुछ समय पहले बाढ़ आई थी. अगर हम चुनाव की तारीख़ घोषित कर देते तो गुजरात में बाढ़ राहत-बचाव कार्य प्रभावित होते..
हाय..! चुनाव आयुक्त की इस अदा पर मर मिटने का मन किया. कितना संवेदनशील चुनाव आयोग है. सच में, ऐसी बात कहके चुनाव आयोग ने हमें तो भावुक कर दिया. आंखें भर आईं. पूछिए क्यों? अरे भइया, ये वही चुनाव आयोग है जिसने इस साल फरवरी में उत्तराखण्ड के बर्फीले पहाड़ों में चुनाव करवा दिए थे. जहां कई इलाकों में विपरीत मौसम में लोगों का जीवन दूभर हो गया था, वहां आयोग चुनाव कराने पर आमादा था. उसने कराके ही छोड़ा. हिमाचल प्रदेश में भी अक्सर चुनाव के समय कई इलाके बर्फ से अटे पड़े होते हैं. लेकिन चुनाव आयोग का तब भी हृदय नहीं पिघलता. ज्यादा दूर क्या जाएं, जम्मू कश्मीर में सितंबर 2014 की वो प्रलंयकारी बाढ़ की तस्वीरें तो अब भी सबके ज़हन में होंगी. बाढ़ से तब पूरा राज्य, ख़ासकर राजधानी श्रीनगर बुरी तरह अस्त-व्यस्त हो गया था. शहर तहस-नहस सा दिख रहा था. राहत और बचाव का काम जहां का तहां पड़ा था. लेकिन इसकी परवाह न करते हुए चुनाव आयोग ने उस साल नवंबर में चुनाव करवाके ही छोड़े. आगे की कहानी आप जानते ही हैं.
अब ज़रा उस पहले वाली तस्वीर की कहानी आपको बताऊं. उसका किस्सा भी कुछ इसी से जुड़ा है. साल 2003 के जनवरी-फरवरी महीने की बात होगी. हिमाचल प्रदेश में चुनाव चल रहे थे. उन दिनों वाजपेयी सरकार के सबसे कद्दावर मंत्री प्रमोद महाजन (तब उनके पास दूरसंचार और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय था) अपनी पार्टी की कैंपेंनिंग में और कुछ रैलियां करने वाले हिमाचल आए थे. उनसे शिमला में पहली शाम को तय हुआ था कि अगली सुबह इंटरव्यू करूंगा. उन्होंने तुरंत हामी भर दी. समय मुकर्रर हुआ. मगर रात को शिमला में भारी बर्फ गिर गई. पूरा शहर बर्फ से लकदक था. लिहाज़ा सड़कों से वाहनों का आना-जाना ठप हो गया. पैदल चलना भी आसान नहीं था. लेकिन अपन का चक्कर ये है कि 'दबंग' के सलमान खान की तरह एक बार जो किसी से कमिटमेंट कर दी, तो फिर अपने आप की भी नहीं सुनता. तब भी नहीं सुनी.
जैसा कहा था, वैसा किया. मैं कुछ किलोमीटर पैदल ही शिमला में चौड़ा मैदान के पास स्थित स्टेट गेस्ट हाउस 'पीटर हॉफ' पहुंच गया. पहाड़वालों के लिए बर्फीले रास्तों को चीरकर बढ़ना कोई बड़ी बात नहीं है. वहां प्रमोद महाजन से मिला तो वो कॉफी की चुस्कियों के साथ कोई क्रिकेट मैच देख रहे थे. मुझे देखकर हैरान रह गए. उन्होंने इतनी दाद कि गदगद होने का मन किया. उन्होंने गेस्ट हाउस में ठहरे दूसरे बड़े नेताओं से भी यह बात साझा की कि देखो, ये बंदा बर्फ में पैदल चलकर इंटरव्यू के लिए आया है. अब उन्हें कैसे बताता कि साहब ये हमारी पेशागत मजबूरी भी है. अख़बार का चुनावी पेज भी तो निकालना था.
बहरहाल, शिमला ही नहीं, हिमाचल के कई इलाकों में तब बर्फबारी हो चुकी थी. इसका अनुमान चुनाव से पहले ही लगा लिया गया था. लेकिन चुनाव आयोग के सौजन्य हिमाचल में चुनाव तब भी हुआ. ये बात अलग है कि तब नेताओं की कई चुनावी रैलियां नहीं हो सकीं. चुनावी कैंपेन पर भी प्रतिकूल असर पड़ा. बर्फीले इलाकों में लोग मतदान करने भी नहीं पहुंच सके. सोचिए,पहाड़ बर्फ से लकदक हों. आने-जाने के सारे रास्ते बंद हों. पूरा इलाके भीषण शीतलहर की चपेट में हो. लोग घरों में दुबके पड़े हों और ऐसे में दिल्ली में बैठा चुनाव आयोग लोगों से कहे कि जाओ, वोट डालने जाओ. ये कैसे मुमकिन है? लेकिन चुनाव आयोग ने तब भी चुनाव कराए.
इसीलिए गुजरात चुनाव के ऐलान में देरी को लेकर जब मुख्य चुनाव आयुक्त ने बाढ़ के बाद राहत और बचाव कार्यों के प्रभावित होने की दलील दी, तो सहसा यकीन नहीं हुआ. क्या ये वही चुनाव आयोग है? काश ! गुजरात की तरह उन हिमालयी राज्यों के मतदाताओं की तकलीफ़ के बारे में भी सोचा होता, जो आपके एक हुक्म पर तमाम विपरीत हालातों के बावजूद पहाड़ों को लांघकर वोट देने पहुंच जाते हैं.
आपको पता ही होगा, चुनाव आयोग ने इस बार गुजरात के चुनावों की तारीखों का ऐलान हिमाचल प्रदेश के साथ नहीं किया. वजह तब नहीं बताई गई. लिहाजा इस पर कई सवाल भी उठे. चुनाव आयोग की खासी किरकिरी भी हुई. इतनी ज्यादा आलोचना हुई कि चुनाव आयोग को जवाब देना भारी पड़ गया. कुछ दिन बाद किसी तरह हिम्मत जुटाकर मुख्य चुनाव आयुक्त ए.के. जोती साहब को बाक़ायदा सफाई देनी पड़ी. लगातार उठ रहे सवालों के बीच उनकी एक मासूम दलील सामने आई. बोले कि गुजरात में कुछ समय पहले बाढ़ आई थी. अगर हम चुनाव की तारीख़ घोषित कर देते तो गुजरात में बाढ़ राहत-बचाव कार्य प्रभावित होते..
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चुनाव आयुक्त के पक्ष में आई ऐसी ख़बरें भी आलोचना से नहीं बचा पाईं |
जैसा कहा था, वैसा किया. मैं कुछ किलोमीटर पैदल ही शिमला में चौड़ा मैदान के पास स्थित स्टेट गेस्ट हाउस 'पीटर हॉफ' पहुंच गया. पहाड़वालों के लिए बर्फीले रास्तों को चीरकर बढ़ना कोई बड़ी बात नहीं है. वहां प्रमोद महाजन से मिला तो वो कॉफी की चुस्कियों के साथ कोई क्रिकेट मैच देख रहे थे. मुझे देखकर हैरान रह गए. उन्होंने इतनी दाद कि गदगद होने का मन किया. उन्होंने गेस्ट हाउस में ठहरे दूसरे बड़े नेताओं से भी यह बात साझा की कि देखो, ये बंदा बर्फ में पैदल चलकर इंटरव्यू के लिए आया है. अब उन्हें कैसे बताता कि साहब ये हमारी पेशागत मजबूरी भी है. अख़बार का चुनावी पेज भी तो निकालना था.
बहरहाल, शिमला ही नहीं, हिमाचल के कई इलाकों में तब बर्फबारी हो चुकी थी. इसका अनुमान चुनाव से पहले ही लगा लिया गया था. लेकिन चुनाव आयोग के सौजन्य हिमाचल में चुनाव तब भी हुआ. ये बात अलग है कि तब नेताओं की कई चुनावी रैलियां नहीं हो सकीं. चुनावी कैंपेन पर भी प्रतिकूल असर पड़ा. बर्फीले इलाकों में लोग मतदान करने भी नहीं पहुंच सके. सोचिए,पहाड़ बर्फ से लकदक हों. आने-जाने के सारे रास्ते बंद हों. पूरा इलाके भीषण शीतलहर की चपेट में हो. लोग घरों में दुबके पड़े हों और ऐसे में दिल्ली में बैठा चुनाव आयोग लोगों से कहे कि जाओ, वोट डालने जाओ. ये कैसे मुमकिन है? लेकिन चुनाव आयोग ने तब भी चुनाव कराए.
इसीलिए गुजरात चुनाव के ऐलान में देरी को लेकर जब मुख्य चुनाव आयुक्त ने बाढ़ के बाद राहत और बचाव कार्यों के प्रभावित होने की दलील दी, तो सहसा यकीन नहीं हुआ. क्या ये वही चुनाव आयोग है? काश ! गुजरात की तरह उन हिमालयी राज्यों के मतदाताओं की तकलीफ़ के बारे में भी सोचा होता, जो आपके एक हुक्म पर तमाम विपरीत हालातों के बावजूद पहाड़ों को लांघकर वोट देने पहुंच जाते हैं.
चुनाव आयोग ने भावुक कर दिया!
Reviewed by Manu Panwar
on
October 30, 2017
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