ये 'खुला खत' क्या बला है जी?
मनु पंवार
'खुला' शब्द का जिक्र आता है तो एक पारदर्शिता और स्वच्छंदता का सा भाव आता है. खुले विचार, खुली किताब, खुली हवा. सब कुछ खुला-खुला. इन दिनों तो 'खुला खत' लिखने का भी खूब चलन है. अलां के नाम खुला खत, फलां के नाम खुला खत. कोई मुख्यमंत्री के नाम लिख रहा, कोई सीधे प्रधानमंत्री के नाम.जिसे देखो वही खुला खत लिक्खे जा रहा है. हम जिस दौर में जवान हुए, तब इस तरह के खुले खतों का रिवाज़ नहीं था. खुले खत तभी लिखे जाते थे, जब कोई सूचना मात्र देनी हो. खुले खत से संवाद करने के कई ख़तरे भी थे. पहला डर तो यही था कि सबसे पहले तो वो मुआ पोस्टमैन ही पढ़ लेगा. फिर पूरे गांव और पूरे मोहल्ले में बांचता फिरेगा. फिर ऐसा खुला खत अगर ग़लती से घरवालों के हाथ लग गया, तो गए काम से.
वो तो ग़नीमत है कि उन दिनों अंतर्देशीय पत्र कार्ड का खूब चलन था. हमारे दौर के लोगों को आसमानी नीले रंग वाली ये चिट्ठियां याद ही होंगी. यही है अंतर्देशीय पत्र कार्ड. अंग्रेज़ी में कहते हैं Inland Letter Card. अपने पहाड़ों में हम शॉर्टकट में अक्सर 'अंतरदेसी' भी कहा करते थे. एक ज़माना था जब अंतर्देशीय पत्र कार्ड का बड़ा क्रेज़ होता था. नीले रंग का पत्र. चिट्ठी लिखी. फोल्ड किया. तीन तरफ से गोंद से चिपकाया. पते वाली जगह पर पता लिखा. गांधी जी की फोटो वाला डाक टिकट चिपकाया और भेज दिया जिसे भेजना है.
मैंने अंतर्देशीय पत्र कार्ड से बहुत सारी चिट्ठियां लिखीं और पाई हैं. सच कहूं तो बड़ा क्रेज़ रहता था ऐसी चिट्ठियों का. यह नीले रंग का अंतर्देशीय पत्र चारों तरफ से बंद होता था. उसे सीक्रेट चिट्ठी भी कह सकते हैं. लिफाफा देखकर कोई ख़त का मजमूं कतई नहीं भांप सकता था. इसलिए कोई ख़तरा नहीं था. ऐसे अंतर्देशीय पत्र कार्डों को इसका क्रेडिट जाना चाहिए कि उनकी बदौलत कई प्रेम कहानियां खूब फली-फूलीं और परवान चढ़ीं.ऐसा नहीं था कि तब खुलापन नहीं था. खुले विचारों का दौर तब भी था, लेकिन खत तो बंद ही अच्छे और सुरक्षित लगते थे. उन दिनों खुले खत के प्रतीक के तौर पर पोस्टकार्ड हुआ करता था. एक दम खुला. पोस्टमैन समेत कोई भी पड़ सकता था. लेकिन पोस्टकार्ड की अपनी सीमायें थीं. पोस्टकार्ड को उस दौर का ट्विटर भी कह सकते हैं. शब्दों की सीमा थी. जैसे आज ट्विटर पर 140 कैरेक्टर की लिमिट है. पोस्टकार्ड में ढंग से अभिव्यक्ति नहीं हो पाती थी, खासकर प्रेम की. वैसे भी प्रेम भला किसी बंदिश को कहां सहता है, फिर चाहे वो शब्दों की ही क्यों न हो.
ये 'खुला खत' क्या बला है जी?
Reviewed by Manu Panwar
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October 06, 2017
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