उत्तराखण्ड के 17 बरस : जाने भी दो यारों
मनु पंवार
(आज उत्तराखण्ड का बर्थडे है. हमारा राज्य 17 साल का हो गया है. उत्तराखण्ड के पहाड़ों में बर्थडे को जनमबार कहते हैं. जनमबार पर घर में पूरियां और उड़द की दाल की पकोड़ियां बनती हैं. बच्चे के ग्रह पूजे जाते हैं. पहाड़ों में बर्थडे केक खाने-खिलाने का चलन नहीं है. ये बात जुदा है कि उत्तराखंड में राजनीति और ब्यूरोक्रेसी मिलकर सत्ता का केक भकोस रहे हैं. जनता को तो अब अपने हिस्से की पकौड़ियां भी नसीब नहीं हैं. )
कभी-कभी मुझे उत्तराखण्ड की स्थिति फ़िल्मकार कुंदन शाह की बहुचर्चित फ़िल्म 'जाने भी दो यारों' की उस लाश (जो किरदार अभिनेता सतीश शाह ने निभाया था) की तरह लगती है जिसे हर कोई अपने कब्ज़े में कर लेना चाहता है. नेता, अफसर, बिल्डर, कॉन्ट्रैक्टर, पत्रकार, माफिया...सब के सब उस लाश को झपटने को आतुर हैं. लाश को लेकर कभी कोई भागता, कभी कोई. तरह-तरह के प्रपंच, छल-कपट हो रहे हैं. कभी उस लाश का मेकअप किया जा रहा है, कभी उसे द्रौपदी के तौर पर मंच पर पेश किया जा रहा है, कभी उसे ताबूत में डालकर सड़कों पर बेहिसाब दौड़ाया जा रहा है. हर कोई गिद्ध की तरह उसे नोच लेना चाहता है.
आखिर यह राज्य उस फ़िल्मी लाश की तरह क्यों हो गया? आज ही तो 17 बरस का हुआ है. सत्रह बरस ही उम्र होती ही कितनी है? बंदा नाबालिग ही कहलाता है. किशोर से वयस्क होने में महज सालभर का ही तो फासला है. यह उम्र तो सपने बुनने की होती है.खेलने-कूदने और कुछ कर गुज़रने की होती है. रगों में जोशीला खून दौड़ता है. उस जोश को लाश में किसने बदल दिया? वो कौन लोग हैं, जो इस लाश को नोचे जा रहे हैं? अब वो बेचारी लाश करे तो क्या करे? किससे कहे? कह सकती और कर सकती तो फिर लाश ही क्यों होती?
वो आधी रात का खबेस !
उत्तराखण्ड का जन्म हुआ था 8 और 9 नवंबर सन 2000 की आधी रात को. रात तो पहाड़ों में बहुत घनी और बड़ी डरावनी होती है. सांय-सांय करती हवा भी डराती है. सन्नाटा भी इस कदर होता है कि छोटे-छोटे कीड़ों तक की आवाज़ें कानों में पड़ जाती है. कभी-कभी रामसे ब्रदर्स की हॉरर मूवी जैसा आभास होता है. जिस बेला पर उत्तराखण्ड का जन्म हुआ, हमारे पहाड़ों में कहते हैं कि ऐसे वक्त में खबेस और मसाण (भूत-पिशाच) चलते हैं. एक बार किसी को 'खबेस' लग गया तो उतरना बड़ा मुश्किल हो जाता है. भांति-भांति के टोने-टोटके करने पड़ते हैं. उत्तराखण्ड वाले तो तब से अपने राज्य पर लगे 'खबेस' को 17 साल बाद भी नहीं उतार पाए हैं. इलाज करने के नाम पर यहां जो भी आया या भेजा गया, उसने 'खबेस' उतारने के बजाय दूसरा 'खबेस' चढ़ा दिया. उत्तराखंड के कंधे पर यह 'खबेस' बेताल की तरह चढ़ बैठा है.
वरना कितना सुंदर राज्य है. साफ़ हवा-पानी, हिमालय, नदियां-झरने, तालाब, बर्फ़, घाटियां, पहाड़, भले लोग. सब कुछ तो है. लेकिन राजनीति में इतना प्रदूषण कहां से आ गया, ये रहस्य उत्तराखण्ड वाले आज तक नहीं जान पाए. मुझे तो लगता है कि जब यह राज्य यूपी की कोख में था, तब प्रसव के दौरान 'दाइयों' ने ही कोई गड़बड़ी की है. डिलीवरी के दौरान इसकी नाल काटते वक़्त शायद कुछ संक्रमण हुआ है. यूपीवाले वायरस नवजात में भी घुस आए. तिकड़मबाजियां, लूट-खसोट, अवसरवादिता सब 'बाइ डिफॉल्ट' आ गया. सिर्फ इतना ही नहीं हुआ, उस 'नवजात' उत्तराखण्ड को लालन-पालन के लिए जिन हाथों में सौंपा गया था, उनमें शऊर ही न था. इससे हुआ ये कि इस पहाड़ी राज्य की राजनीति बंजर बन बैठी. उत्तराखण्ड आज यूपी का एक घटिया संस्करण बनकर रह गया. जिसे कह सकते हैं, पायरेटेड वर्ज़न. आलम ये है कि देहरादून में बैठकर भी पहाड़ के आम लोगों से सरकार उतनी ही दूर है, जितनी लखनऊ से थी.
17 साल, 9 मुख्यमंत्री !
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उत्तराखंड की स्थिति फिल्म 'जाने भी दो यारों ' की इस लाश की तरह हो गई है |
वो आधी रात का खबेस !
उत्तराखण्ड का जन्म हुआ था 8 और 9 नवंबर सन 2000 की आधी रात को. रात तो पहाड़ों में बहुत घनी और बड़ी डरावनी होती है. सांय-सांय करती हवा भी डराती है. सन्नाटा भी इस कदर होता है कि छोटे-छोटे कीड़ों तक की आवाज़ें कानों में पड़ जाती है. कभी-कभी रामसे ब्रदर्स की हॉरर मूवी जैसा आभास होता है. जिस बेला पर उत्तराखण्ड का जन्म हुआ, हमारे पहाड़ों में कहते हैं कि ऐसे वक्त में खबेस और मसाण (भूत-पिशाच) चलते हैं. एक बार किसी को 'खबेस' लग गया तो उतरना बड़ा मुश्किल हो जाता है. भांति-भांति के टोने-टोटके करने पड़ते हैं. उत्तराखण्ड वाले तो तब से अपने राज्य पर लगे 'खबेस' को 17 साल बाद भी नहीं उतार पाए हैं. इलाज करने के नाम पर यहां जो भी आया या भेजा गया, उसने 'खबेस' उतारने के बजाय दूसरा 'खबेस' चढ़ा दिया. उत्तराखंड के कंधे पर यह 'खबेस' बेताल की तरह चढ़ बैठा है.
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हिमालय की पर्वत श्रृंखला. बीच में चौखंभा पर्वत भी दिख रहा है |
17 साल, 9 मुख्यमंत्री !


17 बरस का वक़्त कम नहीं होता यह समझने के लिए कि आखिर उत्तराखण्ड विफल क्यों रहा? इसकी तस्वीर क्यों नहीं बदली? क्यों हमारी सरकारें यह अहसास कराने में नाकाम रहीं कि हम एक अलग राज्य हैं, एक अलग राजनीतिक और प्रशासनिक इकाई हैं. हम अलग हो तो गए लेकिन हमें अलग दिखना भी चाहिए था. यह राज्य तो एक लंबे जनसंघर्ष की कोख से निकला हुआ है. इसकी बुनियाद दर्जनों लोगों के खून से सिंची है. लेकिन आज न जाने क्यों यह राज्य राजनीतिक विफलता का एक बड़ा नमूना बन गया है.
राजनीति, नौकरशाही और कॉरपोरेट के गठजोड़ ने सामूहिक लूट का जो खुला खेल इस राज्य में खेला गया है, वह आंखें खोल देने वाला है. उत्तराखण्ड अब किसी बड़े राजनीतिक प्रहसन की तरह दिखाई देता है. यहां की राजनीति में महत्वाकांक्षाओं का विस्फोट किस कदर है, ये हम बीते साल देख चुके हैं जब हरीश रावत की सरकार को लुढ़काने के लिए नाना प्रकार के प्रपंच किए गए. उत्तराखण्ड के आम लोगों के लिए यह राज्य किसी दु:स्वप्न से कम नहीं लगता. जोकि सत्ता की जोड़तोड़ और भ्रष्टाचार का नया रोल मॉडल बन बैठा है.

बार-बार हिमाचल की मिसाल क्यों?
अब तो तो लगता है कि राजनीतिक उतावलेपन में हमने नए राज्य के गठन से पूर्व उनकी बुनियादी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक ज़रूरतों को नज़रअंदाज कर दिया. किसी भी नई प्रशासनिक इकाई का पूर्ण राज्य में तब्दील होना एक क्रमिक विकास का हिस्सा है. हिमाचल प्रदेश इसका सबसे सटीक उदाहरण है. हिमाचल को जब 25 जनवरी 1971 में पूर्ण राज्यत्व का दर्ज़ा दिया गया, तब तक हिमाचल इसके लिए हर तरह से तैयार हो चुका था. इस राज्य की नींव तो 15 अप्रैल 1948 को ही पड़ चुकी थी जब 30 छोटी-बड़ी रियासतों ने हिमाचल प्रदेश के नाम पर एक प्रशासनिक इकाई में रहने के लिए घोषणा की थी. इस पहाड़ी प्रांत को केंद्र शासित 'चीफ कमिश्नर्ज प्रोविन्स' का दर्जा दिया गया. हालांकि जब चीफ कमिश्नर के शासन में भी कोई विशेष प्रगति नहीं हुई तो वहां ज़ोरदार संवैधानिक लड़ाई आरम्भ हो गई.
इसी लड़ाई
में डॉ. यशवन्त सिंह परमार जैसा प्रखर और ईमानदार नेता उभरा. इस संघर्ष का
नतीजा यह रहा है कि केंद्र सरकार ने हिमाचल को 'पार्ट-सी स्टेट' का दर्जा
देकर वहां विधान मण्डल की व्यवस्था की। 24 मार्च 1952 को डॉ.यशवंत सिंह
परमार हिमाचल प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री बने। बाद में 'पार्ट-सी स्टेट' का
दर्जा हटाकर हिमाचल को केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया. इस तरह इस राज्य
के विकास के लिए सिलसिलेवार कार्यक्रम और योजनाएं चलीं लेकिन हिमाचल को
पूर्ण राज्य का दर्जा मिला इसकी स्थापना के 23 साल बाद यानी 25 जनवरी 1971
को. तब तक हिमाचल को एक परिपक्व राजनीतिक नेतृत्व मिल चुका था और वह आर्थिक
तौर पर भी स्वावलंबी होने की ओर बढ़ रहा था.
क्या उत्तराखण्ड यूपी का उपनिवेश है?
क्या उत्तराखण्ड यूपी का उपनिवेश है?
नए राज्य के लिए संघर्ष की बुनियाद में एक साम्य यह होता है कि वह अपने मूल राज्य का उपनिवेश बनकर नहीं रहना चाहता. हिमाचल वाले इलाके को पंजाब का, उत्तराखण्ड क्षेत्र को यूपी का, झारखण्ड को बिहार का और छत्तीसगढ़ को मध्य प्रदेश का उपनिवेश बने रहना मंज़ूर नहीं था. आंध्र प्रदेश से अलग हुए तेलंगाना की कहानी भी ज़्यादा अलग नहीं है. लेकिन जिन जाने क्यों ऐसा हुआ कि जिन वजहों से ये प्रशासनिक इकाइयां अलग हुईं, बाद में वही वजहें हाशिये पर चली गईं. उत्तराखण्ड यूपी का एक घटिया संस्करण बनकर रह गया.
एक बड़े और अनूठे जनांदोलन की कोख से निकले उत्तराखण्ड राज्य में तो कोई
राजनीतिक नेतृत्व ही तैयार नहीं था। इस शून्य में ऐसी बदशक्ल सी राजनीतिक
तस्वीर सामने आई कि ठेकेदार विधायक बन गए और विधायक ठेकेदार. जो नेता पंचायत सदस्य तक नहीं बन सकता था, वह मंत्री बन
गया और जो मंत्री बनने के काबिल न था, वह मुख्यमंत्री बन बैठा. ठेकेदारों के हाथ में सरकार की डोर आ गई. लिहाज़ा एक
नए राज्य के लिए ज़रूरी राजनीतिक दृष्टि आज तक पैदा ही नहीं हो पाई, हम सिर्फ
चुनावबाज नेताओं की एक जमात ही तैयार कर पाए हैं. तो क्या हम मान बैठे हैं कि इस राज्य का कुछ नहीं हो सकता? क्या कुछ बदलने की उम्मीद अभी बाक़ी है?
उत्तराखण्ड के 17 बरस : जाने भी दो यारों
Reviewed by Manu Panwar
on
November 09, 2017
Rating:
Bahut sateek lika manu jee
ReplyDeleteHal nahi batya app ne kon ban sak ta hey vikalp.
App ne sateek lika
ReplyDeleteMagar hal nahi batya.kon ban sak ta viklap.
App ne sateek lika
ReplyDeleteMagar hal nahi batya.kon ban sak ta viklap.