‘बे’ लगने से क्या-क्या खेल बिगड़ते हैं !
मनु पंवार
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'बे' लगने से कार वाला 'बेकार' हो जाता है |
अपना वश चले तो मैं हिन्दी के कई अक्षरों को सूली पर चढ़ा दूं। ऐसे कई अक्षर, जो प्रगति विरोधी हैं, देश और समाज का बड़ा नुकसान कर रहे हैं। अब ‘बे’ शब्द को ही ले लीजिए। इसकी वजह से न हिन्दी उन्नति कर पा रही है और न ही देश। हिन्दी में ‘बे’ अक्षर लगने से अचानक शब्दों का अवमूल्यन हो जाता है और वो चीजों को निरर्थक बना डालता है। बंदे की कोई औकात ही नहीं रह जाती।
अब देखिए न, कार समाज की प्रगति की सूचक है। जब से देश की सरकार बहादुर ने उदारवाद को गले लगाया है, कारों और कार वालों की संख्या कितनी बढ़ गई है। कार वाले देश के खाते-पीते वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं और देश की तरक्की का प्रतीक माने जाते हैं। लेकिन कम्बख्त ‘बे’ अक्षर सारा खेल बिगाड़ देता है। कार से पहले अगर ‘बे’ लग जाए तो बेकार हो जाता है। यानी कार की सोच ही बेकार है। यह अक्षर तो तरक्की के दर्शन को ही धिक्कार रहा है। मुझे लगता है कि हिन्दी के शब्दकोष में ‘बे’ अक्षर की एंट्री रुढ़िवादी लोगों ने करवाई होगी। जनतांत्रिक गठबंधन वाली सरकारों या प्रगतिशील गठबंधन वाली सरकारों को प्रगति के अवरोधक ऐसे अक्षरों को फौरन डिक्शनरी से हटा देना चाहिए।
‘बे’ अक्षर ने हिन्दी कविता को भी नुकसान पहुंचाया है। हमारे राष्ट्रीय कवि कितने भीषण तुक के उस्ताद रहे हैं। लेकिन जो कवि तुक नहीं बिठाता, वह एक ‘बे’ अक्षर की वजह से बेतुका हो जाता है। यह तो सरासर नाइंसाफी है। हिन्दी कविता ऐसे में क्या खाक प्रगति करेगी? अगर बिना तुक का कवि बेतुका ठहरा दिया गया, तो फिर काव्य की धारा कैसे निर्बाध बहेगी? आधुनिक कविता और नई कविता का क्या घास छीलेंगी?
इस तरह तो जो गायक ताल में नहीं है, वह बेताल हो जाता है। प्राचीन कहानियों में सुनते थे कि बेताल बड़ा ख़तरनाक होता है। वह सदैव राजा विक्रम के कांधे पर सवार होता था। वह पहले तो राजा विक्रम से जुबान न खोलने की शर्त रखता। शर्त का पालन न होने पर सिर के टुकड़े-टुकड़े कर डालने की धमकी दे डालता और फिर बातों-बातों में जुबान खुलवाकर ही मानता। इधर जुबान खोलकर राजा विक्रम फंस जाता और उसका दिया वचन टूट जाता, उधर बेताल विक्रम के कंधे से फुर्र से उड़ जाता। ये सब ‘बे’ का किया-धरा है।
‘बे’ अक्षर कामगार विरोधी भी है। वह रोजगार तो दे नहीं सकता लेकिन एक ही झटके में बेरोजगार बनाने की सामर्थ्य रखता है। ईमानदारों का ईमान डिगाने के लिए एक ही अक्षर काफी है। ईमानदार से बेईमान होने में सिर्फ ‘बे’ ही का तो फ़ासला है। ‘बे’ की मदद से कोई भी बंदा शर्म के कपड़े उतरवा सकता है। बेड़ागर्क हो इस ‘बे’ का, जो इज़्ज़तदारों को बेइज़्ज़त करने में पलभर की भी देरी नहीं करता।
‘बे’ लगने से क्या-क्या खेल बिगड़ते हैं !
Reviewed by Manu Panwar
on
April 27, 2019
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