हर बार 'धन्नो' ही 'बसंती' की लाज क्यों बचाए?
हमें लगता है कि हेमा मालिनी साहिबा ने बेचारी घोड़ी धन्नो से ज़रूरत से कुछ ज़्यादा ही काम ले लिया है। हर रैली, हर सभा, हर रोड शो, हर मीटिंग में वह बस एक ही डायलॉग मारती फिरती हैं- "चल धन्नो ! आज तेरी बसंती की इज़्ज़त का सवाल है।" अरे भई, यह बसंती का निजी मामला है। वह खुद निपटे। बेचारी धन्नो को क्यों घसीट लेती हो? कुछ तो रहम कीजिए उस बेज़ुबान पर।
ये बात समझ में नहीं आती कि बसंती ऐसी जगह अपनी टांग फंसाती ही क्यों हैं जहां इज़्ज़त दांव पर लग जाती है? ज़रूरत ही क्या है? ऐसा क्यों होता है कि हर जगह और हर बार आपकी लाज बचाने की जिम्मेदारी उस बेचारी धन्नो के कंधों पर ही आन पड़ती है? सिनेमा, नृत्य से लेकर राजनीति तक, हर जगह टांग घुसेड़ोगे आप और भरोसे रहोगे बेचारी धन्नो के ! ये कहां का न्याय है जी? अपनी इज़्ज़त अपने हाथ।
इज़्ज़त बची रहे, इसीलिए ‘शोले’ के वीरू ने बसंती की पार्टी से एक बार सांसद चुने जाने के बाद राजनीति से तौबा कर ली थी. कुछ इस अंदाज़ में कि ‘ये ले अपनी लकुटि कमरिया, बहुत ही नाच नचायो।' ज्यादा समय नहीं गुज़रा है जब वीरू को उनके चुनाव क्षेत्र बीकानेर के मतदाता पुकारते रह गए कि घर कब आओगे? उधर, वीरू सांसद का चोला उतारकर अपने घर बैठ गए.
अब बसंती भी 'इज्जत' का इमोशनल दांव चलके बेचारी धन्नो को मज़बूर कर रही है। मुझे तो लगता है कि यह सीधे-सीधे पशु क्रूरता का मामला है। मेनका गांधी को तुरंत इस मामले का संज्ञान लेना चाहिए। आखिर उस धन्नो का भी कोई 'मानवाधिकार' है कि नहीं?
ये बात समझ में नहीं आती कि बसंती ऐसी जगह अपनी टांग फंसाती ही क्यों हैं जहां इज़्ज़त दांव पर लग जाती है? ज़रूरत ही क्या है? ऐसा क्यों होता है कि हर जगह और हर बार आपकी लाज बचाने की जिम्मेदारी उस बेचारी धन्नो के कंधों पर ही आन पड़ती है? सिनेमा, नृत्य से लेकर राजनीति तक, हर जगह टांग घुसेड़ोगे आप और भरोसे रहोगे बेचारी धन्नो के ! ये कहां का न्याय है जी? अपनी इज़्ज़त अपने हाथ।
इज़्ज़त बची रहे, इसीलिए ‘शोले’ के वीरू ने बसंती की पार्टी से एक बार सांसद चुने जाने के बाद राजनीति से तौबा कर ली थी. कुछ इस अंदाज़ में कि ‘ये ले अपनी लकुटि कमरिया, बहुत ही नाच नचायो।' ज्यादा समय नहीं गुज़रा है जब वीरू को उनके चुनाव क्षेत्र बीकानेर के मतदाता पुकारते रह गए कि घर कब आओगे? उधर, वीरू सांसद का चोला उतारकर अपने घर बैठ गए.
अब बसंती भी 'इज्जत' का इमोशनल दांव चलके बेचारी धन्नो को मज़बूर कर रही है। मुझे तो लगता है कि यह सीधे-सीधे पशु क्रूरता का मामला है। मेनका गांधी को तुरंत इस मामले का संज्ञान लेना चाहिए। आखिर उस धन्नो का भी कोई 'मानवाधिकार' है कि नहीं?
हर बार 'धन्नो' ही 'बसंती' की लाज क्यों बचाए?
Reviewed by Manu Panwar
on
May 17, 2019
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