सोशल मीडिया ने हमारे आपसी सम्बन्धों को घर में घुसकर मारा है?
ख़ुदा-न-खास्ता अगर कभी संयुक्त राष्ट्र की किसकी एजेंसी ने ये शोध करवाया कि पिछले पांच-छह बरस में दुनिया में लोगों के बीच सबसे ज़्यादा दोस्ती किस देश में टूटी हैं? लोगों के आपसी रिश्ते कहां सबसे ज़्यादा ख़राब हुए? नागरिकों में कड़ुवाहट कहां सबसे ज़्यादा बढ़ी। सोशल मीडिया पर सबसे ज़्यादा गाली-गलौज़ और ट्रॉलिंग कहां हुई है? फेसबुक या ट्विटर पर सबसे ज्यादा बंदे अनफ्रेंड या ब्लॉक कहां किए गए? वाट्सऐप पर सबसे ज्यादा फॉरवर्ड कहां हुए और वाट्सऐप पर ही 'एक्जिट ग्रुप' का ऑप्शन सबसे ज्यादा बार किस देश के यूजर्स ने इस्तेमाल किया? सार्वजनिक बहस-बुहाबिसों का लेवल कहां सबसे नीचे गिरा? तो मुझे यकीन है कि हमारा नंबर सबसे ऊपर होना चाहिए।
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मानव विकास सूचकांक में दुनिया के देशों में भले ही हमारा नंबर 130वां हो, लेकिन ऐसा लगता है कि यहां हमसे आगे कोई नहीं। इस फील्ड में तो हम बेताज बादशाह होने चाहिएं। लेकिन हैरानी की बात ये है कि इसका क्रेडिट लेने को कोई आगे नहीं आएगा। ऐसा पहले कभी नहीं देखा गया कि राजनीतिक वैचारिकी से लेकर अंधभक्ति और अंधविरोध के चक्कर में बंदों ने इतने व्यापक लेवल पर अपने सामाजिक रिश्तों को भी बलि चढ़ाने से भी गुरेज नहीं किया। बरसों की दोस्ती तो टूटी ही, रामा-रामी भी गई।
मशहूर शायद निदा फ़ाज़ली साहब का यह शेर भी सिर्फ क़िताबों में ही रह गया कि-
दुश्मनी लाख सही, ख़त्म न कीजे रिश्ता
दिल मिले या न मिले, हाथ मिलाते रहिए।
बंदे सोच रहे हैं कि जब दिल ही नहीं मिल रहे हैं तो हाथ क्यों मिलाएं? फाज़ली साहब का ये शेर इन पांच-छह सालों के भीतर ही सिर के बल खड़ा हो गया है। छोटी-मोटी आलोचना को भी बर्दाश्त कर लेने की हमारी क्षमता जाती रही। दिलचस्प बात तो ये है कि नेता ऊपर-ऊपर तो आपस में अपने सम्बन्धों की गरमाहट बनाए हुए हैं। यहां तक कि एक-दूसरे के लिए कुर्तों का आदान-प्रदान भी कर रहे हैं और ज़मीन पर समर्थकों में आपस में सिर फुटौव्वल मचा हुआ है। बीते पांच-छह साल में जैसा देखा गया है, वैसा पहले नहीं देखा गया।
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राजनीतिक/ वैचारिक तौर पर हम इतने ख़तरनाक हद तक विभाजित हो गए हैं कि न रिश्ते-नातों की फिक्र की, न दोस्ती की, न अपने-परायों की। सोशल मीडिया पर तो एक अराजक सी भीड़ है जो अपने विरोधियों या आलोचकों पर आक्रांताओं की तरह टूट पड़ती है। वैसे यह सोशल मीडिया की वजह से ही मुमकिन हो पाया कि एक समाज के तौर पर हमारे सारे विरोधाभास सतह पर आ गए।
यह विभाजन बहुत साफ-साफ है। एक तरफ नरेंद्र मोदी के भक्त और दूसरी तरफ मोदी विरोधी/आलोचक। एक लोकतांत्रिक व्यवस्था का हिस्सा होने के नाते सत्तासीनों का समर्थन या विरोध यह कोई अजूबी घटना नहीं है, लेकिन इस दफा उस भक्ति या उस विरोध की जिस अंदाज़ में सार्वजनिक नुमाइश हुई है, उसने हमारे आपसी सम्बन्धों, रिश्ते-नातों, हैलो-हाय तक को बहुत बुरी तरह प्रभावित कर दिया है। मोदीजी के शब्दों में कह सकते हैं कि 'घर में घुसकर मारा है।'
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हालांकि अब जब अति होने लगी है तो उससे उकताहट भी पैदा होने लगी है। कुछ समय से मैं सोशल मीडिया पर कुछ ऐसी आवाजें भी देख/सुन रहा हूं जिनसे अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि इस सब से लोग किस कदर आहत हैं। फेसबुक से लेकर ट्विटर तक ऐसी कई पोस्ट, कई ट्वीट मेरी नज़रों से गुजरे हैं जिनमें यह अपील की जा रही है कि नेताओं के चक्कर में अपने आपसी रिश्ते ख़राब न करें।
हालांकि अब जब अति होने लगी है तो उससे उकताहट भी पैदा होने लगी है। कुछ समय से मैं सोशल मीडिया पर कुछ ऐसी आवाजें भी देख/सुन रहा हूं जिनसे अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि इस सब से लोग किस कदर आहत हैं। फेसबुक से लेकर ट्विटर तक ऐसी कई पोस्ट, कई ट्वीट मेरी नज़रों से गुजरे हैं जिनमें यह अपील की जा रही है कि नेताओं के चक्कर में अपने आपसी रिश्ते ख़राब न करें।
ऐसे पोस्ट हालांकि तुलनात्मक रूप से कम तादाद में हैं लेकिन सबसे अहम बात है कि वो दिखने लगी हैं। यह उस नफरत, उस कड़ुवाहट, उस गाली-गलौज़ से उकताहट का संकेत है जोकि सोशल मीडिया पर पिछले पांच-छह सालों से धुआंधार तरीके से फैलाई जा रही है। इससे यह भी पता चलता है कि सोशल मीडिया पर आई अराजक भीड़ ने माहौल किस कदर बिगाड़ दिया।
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वैसे तो बंटी हुई भीड़ किसी की भी राजनीति की ज़मीन को उर्वर बनाने के लिए पर्याप्त होती है। लेकिन वैचारिक तौर पर इस कदर बंटा हुआ समाज किसी भी नेता के लिए सबसे आदर्श स्थिति मुहैय्या कराता है। वह अलग तरह का जनमत तैयार करने में मददगार होता है। ये अलग चिंता की बात है कि लोगों की यह आपसी कड़ुवाहट कहां जाकर थमेगी और थमेगी भी या नहीं? इस बारे में तो कोई आश्वस्त होकर नहीं कह सकता।
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मुझे पहाड़ के सबसे चर्चित पत्रकारों में शामिल राजेन टोडरिया की एक पुरानी कविता याद आ रही है, जो उन्होंने बांध के लिए टिहरी को डुबोए जाने के दौरान लिखी थी। इस कविता का संदर्भ अलग है, लेकिन आज भी सामयिक लगती है-
'किसी शहर को डुबोने के लिए,
काफी नहीं होती है एक नदी,
सिक्कों के संगीत पर नाचते,
समझदार लोग हों,
भीड़ हो मगर बंटी हुई,
कायरों के पास हो तर्कों की तलवार,
तो यकीन मानिये,
शहर तो शहर,
यह काफी है,
देश को डुबोने के लिए।'
सोशल मीडिया ने हमारे आपसी सम्बन्धों को घर में घुसकर मारा है?
Reviewed by Manu Panwar
on
May 17, 2019
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