'फेंकना’ भी एक कला है

मनु पंवार


(डिस्क्लेमर : यह व्यंग्य 'जगरनॉट' से प्रकाशित मेरे व्यंग्य संग्रह 'सेल्फी का स्वर्णयुग का हिस्सा है. वहीं से साभार यहां प्रकाशित कर रहा हूं. )

     रोमांचक मुक़ाबले में जीत के
 बाद भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान ने कहा- गेंदबाज़ों ने अच्छा फेंका, इसलिए हम जीत गए. उनकी इस बात से एक बार फिर से साबित हो गया कि ‘फेंकने’ और जीत के बीच परस्पर कितना गहरा संबंध है. इस देश को क्रिकेट का तो शुक्रगुज़ार होना ही चाहिए कि जिसने 'फेंकने' को मुहावरे में बदल दिया.
वैसे ‘फेंकना’ भी एक कला है. कई लोगों के लिए ललित कला से कम नहीं है. मुझे लगता है क्रिकेट ने इस कला को भारत में ज्य़ादा लोकप्रिय बनाया है. क्रिकेट की कमेंटरी से ही हमने जाना कि फलां गेंदबाज़ फलां छोर से फेंक रहा है. लेकिन अब 'फेंकने' में लोग इतने पारंगत हो गए हैं कि उसका कोई ओर-छोर ही नज़र नहीं आता. 
हालांकि फेंकने के नतीजे क्या होंगे, यह काफी हद तक इस पर डिपेंड करता है कि फेंका क्या गया है. अगर कूड़ा फेंका गया है तो उसका हश्र कई बार दिल्ली की सड़कों जैसा हो जाता है, जिसमें प्राय: दिल्ली नगर निगम अर्थात् एमसीडी वालों की कोर्ट में पेशी हो जाया करती है.

वैसे कई लोग यह भी मानते हैं कि अपने यहां फेंकने की कला का एक चमकदार अतीत रहा है. ऐसे मतावलंबियों के मुताबिक अकबर के दरबारी बीरबल की इतिहास के सबसे बड़े फेंकुओं में ख्याति है. लेकिन भारत के आधुनिक राजनीतिक इतिहास में फेंकने की कला ने राजनीति में कब घुसपैठ कर ली, इसका पता ही नहीं चला. 
नेता अक्सर चुनावों में इसका इस्तेमाल किया करते हैं. छोटा नेता बेचारा छोटी दूरी की ही फेंक पाता है क्योंकि उसका दायरा छोटा होता है. उसे यह भय भी रहता है कि अगर वह बड़ी-बड़ी फेंकने लगेगा तो पकड़ा जाएगा, लेकिन बड़े नेता को बड़ी-बड़ी फेंकने की सहूलियत रहती है. उसका कारपेट एरिया बड़ा होता है. 
जब-जब उसे अपने ‘फेंकने’ के पकड़ में आ जाने की आशंका रहती है, तो वह तत्काल छोर बदलकर दूसरी उससे भी ज्यादा लंबी फेंक लेता है. जो चतुर नेता होते हैं वो अपनी फेंकने की कला को नारे का जामा पहना दिया करते हैं. ऐसा फेंकना कई बार पांच साल में ही पकड़ में आ पाता है. इस तरह फेंकने की कला ने राजनीति के साथ चोली-दामन टाइप रिश्ता बना लिया.  
हमें तो सलीम-जावेद साहब का भी शुक्रगुज़ार होना चाहिए। जिन्होंने पहली बार फ़िल्म ‘शोले’ में सबसे बड़े फेंकू सूरमा भोपाली के किरदार को इंट्रोड्यूस किया। इस फिल्म के ज़रिये पहली बार पब्लिक ने जाना कि ‘फेंकना’ दरअसल होता क्या है। सूरमा भोपाली दिन-दहाड़े सीरियसली फेंक रहा था। लेकिन साहब, छोटा आदमी आखिर कितनी भी बड़ी-बड़ी फेंक ले, पकड़ा तो जाएगा ही। सूरमा भोपाली भी पकड़ा गया। इससे एक और बात साबित होती है। ‘फेंकना’ सबको सूट नहीं करता।

'फेंकना’ भी एक कला है 'फेंकना’ भी एक कला है Reviewed by Manu Panwar on May 13, 2019 Rating: 5

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