कील पर एक सामयिक निबंध

मनु पंवार 



कील दो प्रकार की होती है. एक छोटी कील और दूसरी बड़ी कील। कीलों का यह वर्गीकरण खुद कील समुदाय ने किया या इंसानों ने उनके कद और अपनी जरूरत के हिसाब से उनका क्लास तय कर लिया, इसका कोई ज्ञात इतिहास नहीं मिलता। कीलों को भले ही क्लास में बांट दिया गया हो, लेकिन कीलों ने अपना स्वभाव और अपना मूल चरित्र नहीं छोड़ा। छोटी कील भी उसी तरह चुभती और गड़ती है, जितनी कि बड़ी कील। इसीलिए आपने कील का कोई विज्ञापन नहीं देखा होगा। जरूरत ही नहीं पड़ती जी। विज्ञापन तो उनको करना पड़ता है जिनके स ीमेंट में जान नहीं होती। 

कील बहुत वफादार होती है। चाहे वो छोटी कील हो या बड़ी कील। मतलब किसी जगह कायदे से ठोक दी गई तो आसानी से उखड़ती नहीं है। फिर आप चाहे तो उस पर तौलिया टांगो या फोटो। कील के इस करेक्टर पर एक मशहूर शेर भी है-  

'मैंने तस्वीर फेंक दी है
मगर कील दीवार में गड़ी हुई है।' 

असल में उखड़ना कील के मूल स्वभाव में नहीं है। कील के साथ जबर्दस्ती करनी पड़ती है तब जाकर वह अपनी जगह छोड़ पाती है। वरना वह अपनी तय भूमिका को पूरी ईमानदारी से निभाती है। आधुनिक भारत के राजनीतिक इतिहास में ऐसे मौके भी आए हैं जब कीलें दूसरों को उखाड़ने के लिए ठोकी गई हैं। वो ऐसी कीलें होती हैं जो किसी के सीने में गड़ी होती हैं। 

लेकिन कील के साथ एक दिक्कत है। उसे गाड़ने के लिए बेजान सतह की जरूरत पड़ती है। वो चाहे लकड़ी हो या दीवार। जिंदा सतहों पर कीलें गाड़ने की कोशिश खतरे से खाली नहीं हैं। फिल्मी अंदाज में कहें तो करारा जवाब मिलेगा। ऐसी कीलें खतरनाक होती हैं। उनसे सावधान रहना चाहिए। इतिहास गवाह है कि ऐसी कीलें अक्सर ताबूत में आखिरी कील साबित हुई हैं।
कील पर एक सामयिक निबंध कील पर एक सामयिक निबंध Reviewed by Manu Panwar on February 19, 2021 Rating: 5

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