लोकतंत्र का गला इतना कमजोर क्यों होता है?
मनु पंवार
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कार्टूनिस्ट इरफान का कार्टून उनके ट्विटर हैंडल से साभार |
नेताजी चिल्ला रहे थे कि लोकतंत्र का गला घोंटा जा रहा है। मुझे तो यह बात आज तक समझ में नहीं आई कि जब लोकतंत्र को गढ़ा जा रहा था तो उसके गले के आकार और उसकी गुणवत्ता पर विशेष ध्यान क्यों नहीं दिया गया? शरीर के बाकी अंगों के मुकाबले उसे इतना कमज़ोर क्यों बनाया गया कि हर कोई मामूली सी बात पर सीधे लोकतंत्र का गला घोंट देता है? क्या लोकतंत्र के शिल्पियों को तब गले की अहमियत का अंदाज़ा नहीं रहा होगा? अगर कोई यह दावा करता है कि इस देश में लोकतंत्र की जड़ें मजबूत हैं तो यह आश्वस्त क्यों नहीं कर पाता कि लोकतंत्र का गला भी मजबूत है?
गला अगर वाकई
मजबूत होता तो कोई भी ऐरा-गैरा सीधे लोकतंत्र का गला घोंटने पर आमादा न होता। अब
यह रहस्य सब जान गए हैं कि लोकतंत्र का गला ही उसकी सबसे कमज़ोर नस है, इसीलिए तो
लोकतंत्र के गले-गले आई हुई है। लेकिन मुझे ताज्जुब इस बात का है कि आज़ादी के बाद
से लेकर अब तक इतनी बार लोकतंत्र का गला घोंटा जा चुका है, फिर भी लोकतंत्र की
मृत्यु की सार्वजनिक घोषणा नहीं हुई।
कहीं ऐसा तो
नहीं कि लोकतंत्र वेंटिलेटर पर पड़ा हो और जीवन रक्षण उपकरणों के सहारे उसे
कृत्रिम सांस दी जा रही हो? हो सकता है कि लोकतंत्र कोमा में चला गया हो और हम उसके बेजान
पड़े ढांचे को ही लोकतंत्र मान बैठे हों। जब बार-बार लोकतंत्र का गला घोटा जा सकता
है तो कुछ भी हो सकता है।
वैसे सच
कहूं तो यह लोकतंत्र है तो बड़ा ही विचित्र किस्म का प्राणी। हमने पढ़ा है कि उसके
तीन पाये होते हैं। इस हिसाब से लोकतंत्र को आप तिपहिया वाहन अर्थात् टैंपो, ऑटो
रिक्शा इत्यादि मान सकते हैं। तीन पहिये का लोकतंत्र ! आम जनता की सवारी। आप सड़क पर चलते साइकिल रिक्शा को देखकर अपने बच्चों को बता सकते हो कि देखो-देखो, लोकतंत्र जा
रहा है।
हालांकि
हमने तो यह अफवाह भी सुनी है कि लोकतंत्र का कोई चौथा पाया भी होता है। लेकिन फिर किसी
बड़े शायर का वह शेर याद आ जाता है- “सनम सुनते
हैं कि तेरी भी कमर है / कहां है? किस तरफ है? औ किधर है?”

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