अक्ल छोटी पड़ गई, भैंस बड़ी हो गई !
मनु पंवार
मैं सदा से भैंस समर्थक बंदा रहा हूं। हम सब ने भैंस का दूध पिया लेकिन मुझे लगता है कि भैंस के साथ समाज में दोयम दर्जे का सलूक होता है। या यों कहें कि रंगभेद होता है। अब देखिए न, राजनीति में गाय को बचाने का इतना शोर उठा कि लोग यह भी भूल गए कि भैंस को भी बचाना होता है।
भैंस को तो बंदों ने एकदम नजरअंदाज ही कर दिया जी। लगता है इसी उपेक्षा से क्षुब्ध होकर भैंसों ने नई-नवेली वन्दे-भारत ट्रेन से टकराने का स्टंट किया ताकि लोगों को ये पता रहे कि छेनू आया था।
वैसे ऐसे विकट समय में हमें यूपी पुलिस का शुक्रगुजार होना चाहिए जिसने दो साल पहले भैंस को बचाने की नायाब मिसाल पेश की। इसके लिए उसने अपनी हिरासत वाले क्रिमिनल विकास दुबे की भी जान की परवाह नहीं की। गाड़ी पलटा दी लेकिन भैंस को आंच तक नहीं आने दी। इसे कहते हैं बचाना।
तो भैंस बड़ी चीज है. यह बात अलग है कि उसे गाय के जैसे माता का दर्जा नहीं मिल पाया है। जबकि दूध वह भी देती है। गाय के मुकाबले मुहावरे और लोकोक्तियां उस पर ज्यादा बने हैं, मसलन- भैंस के आगे बीन बजाना, अक्ल बड़ी कि भैंस, काला अक्षर भैंस बराबर, गई भैंस पानी में इत्यादि। इन कहावतों के जरिये हम भारतीय समाज में भैंस की उपयोगिता को समझ सकते हैं।
इसीलिए दो साल पहले कानपुर में हुए विकास दुबे एनकाउंटर वाली एफआईआर में जब मैंने भैंस के झुंड का जिक्र पढ़ा, तो कसम से आंखें भर आईं थीं। आज के समय में बेटा अपने बाप को नहीं पूछ रहा है और यूपी की पुलिस को भैंस की जान की इस कदर फिक्र हुई कि उसने बंदों की जान दांव पर लगा दी। यह सुनकर किसके जज्बात न उमड़ पड़ें !

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