गुलज़ार : है यार मेरा खुशबू की तरह


मनु पंवार

साल 2001। वो अक्तूबर के दिन थे। शिमला में गुलाबी ठंड के दिन। मैं बहुत उत्साहित था। गुलज़ार साहब से मुलाकात होनी थी। वह इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज़, शिमला में आए हुए थे। किसी कार्यक्रम में स्पेशल गेस्ट थे। यह इंस्टीट्यूट 19वीं सदी में बनी ब्रिटिशकालीन इमारत वाइस रीगल लॉज में है। जो ब्रिटिश इंडिया में वॉयसराय का निवास हुआ करता था। मतलब हिंदुस्तान का राजकाज यहीं से चलता था। इसी इमारत में भारत के बंटवारे पर मुहर लगी थी। आज़ादी के बाद इसे राष्ट्रपति निवास कहा जाने लगा। बाद में राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने इसे उच्च अध्ययन का केंद्र बना दिया।

बहरहाल, गुलज़ार से मेरा परिचय इंस्टीट्यूट के एक अधिकारी अशोक शर्मा ने कराया। गुलज़ार वहां तीन दिन रहे। मैंने अपने दफ़्तर से तीन दिन की छुट्टी ले ली। हालांकि अख़बार में रिपोर्टिंग करते हुए छुट्टी मिल पाना बड़ा मुश्किल हो जाता है, लेकिन हमारे बॉस राजेन टोडरिया ने मेरा बालोचित उत्साह देखकर इतनी छूट दे दी। सोने पर सुहागा टाइप हो गया था। फिर क्या था, मैं उन तीनों दिन गुलज़ार साहब के ही इर्द-गिर्द रहा। मौक़ा मिलते ही उनसे गपशप, बातचीत करता रहा। रिकॉर्डिंग की सुविधा वाला वॉकमैन मेरे साथ था। तीन दिन लगातार मिलते-जुलते रहने की वजह से वह पहचानने लगे थे और थोड़ा अनौपचारिक भी हो गए थे। इसका मैंने फायदा उठाया। 

गुलज़ार साहब के साथ वॉइस रीगल लॉज के उस कमरे में भी गया जो कभी लॉर्ड माउंटबेटन का बेडरूम हुआ करता था। उसके ठीक सामने उस कमरे में भी गए, जो कभी लेडी माउंटबेटन का बेडरूम हुआ करता था। यह देखकर अच्छा लगा कि तब सब कुछ वैसे ही सहेज कर रखा गया था। हालांकि आम विजिटर्स को इन ख़ास जगहों में जाने की इजाज़त नहीं है। इमारत बहुत पुरानी है। उसकी सेफ्टी के कारण से ही शायद कुछ जगहों पर सबका जाना निषेध है।


एक दिन लंच के दौरान की बात है। ज्यादातर लोग लंच से फारिग हो गए थे तो हम लोग गुनगुनी धूप में वॉइस रीगल लॉज के आंगन की मखमली घास पर टहल रहे थे। बहुत अनौपचारिक किस्म का माहौल था। मौका ताड़कर मैंने भी बातों-बातों में गुलज़ार साहब से जिज्ञासावश पूछ लिया- "सर, ये जो आपने 90 के दशक में गीत लिखा कि...जंगल-जंगल पता चला है/चड्ढी पहनके फूल खिला है...क्या इसका आरएसएस और बीजेपी से भी कोई कनेक्शन है?"  मेरे सवाल पर गुलज़ार थोड़ा ठिठके। फिर एक ज़ोरदार ठहाका मारा। मेरे कंधे पर थपकी मारी और आगे बढ़ गए। जवाब नहीं दिया। पता नहीं वो ठहाका ही जवाब था या नहीं।

गुलज़ार साहब की मौज़ूदगी हो तो भला उनसे कुछ सुनने की तमन्ना किसकी न होगी। फ़िल्मी गीतों में उनकी शब्दों की कारीगरी के न जाने कितने लोग मुरीद हैं, जो सुर के कांधे पे सवार होकर कानों में कुछ-कुछ घोल जाते हैं। गुलज़ार ने प्रतीकों और बिंबों का गज़ब इस्तेमाल किया है। 'मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है..., 'सारा दिन सड़कों पे खाली रिक्शे सा पीछे-पीछे चलता है...''जा पड़ोसी के चूल्हे से आग लेईले...''है यार मेरा खुशबू की तरह /उसकी जु़बां उर्दू की तरह...''आ धूप मलूं मैं तेरे हाथों में...'।  ऐसे न जाने कितने ही गीत हैं जिनमें गुलज़ार चौंकाते हैं। 



भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान शिमला के उच्चाधिकारियों ने भी सोचा कि ऐसा दुर्लभ मौक़ा भला क्यों चूकें। तो रात को जब सब लोग डिनर से निबटे, उसके बाद गुलज़ार का एकल कविता पाठ रखा गया। वह भी केवल संस्थान के फैलो और ख़ास मेहमानों के लिए। इंस्टीट्यूट की लाइब्रेरी के पास गलियारे में डायस लगाया गया। उस पर लगे माइक से मैंने अपना रिकॉर्डर वॉकमैन सटा लिया और सबसे आगे बैठ गया ताकि कैसेट बीच में खत्म हो तो उसे फौरन पलट सकूं। उन दिनों कैमरे वाले मोबाइल फ़ोन नहीं आए थे। 

सारे मेहमान नीचे फर्श पर बैठे। सुंदर कालीन बिछाए गए थे। जम्मू कश्मीर के तत्कालीन डीजीपी खजूरिया साहब (फोटो में शॉल ओढ़े केशविहीन सिर और रौबदार मूंछों वाले व्यक्ति) भी पहुंचे हुए थे। वह सबसे आगे पालथी मारकर बैठ गए। अब जब पुलिस का मुखिया सबसे आगे धूनी रमाके बैठ जाए तो किसी की क्या मज़ाल कि उनसे आगे बैठे। अमिताभ बच्चन का एक फ़िल्मी डायलॉग याद आ गया- ‘हम जहां खड़े होते हैं लाइन वहीं से शुरू हो जाती है...।’....कुछ इसी टाइप की सूरत बन गई थी। बाकी मेहमान डीजीपी साहब के पीछे बैठे। उनमें मैं भी था। फोटो में थोड़ा सा दिख रहा हूं।


बहरहाल, गुलज़ार साहब डायस पर आए। माइक पर उनकी आवाज़ की खनक ही अलग होती है। इस तरह उनसे पहली बार मुखातिब हो रहा था। उनकी वाणी में गज़ब का सम्मोहन है। हम टीवी वाले ऐसी आवाज़ों को वॉइस ओवर के लिए परफेक्ट आवाज़ मानते हैं। डायस पर आते ही गुलज़ार बोले, मैं आपको त्रिवेणी सुनाता हूं। त्रिवेणी यानी उनके अनुसार तीन लाइन की कविता। कुछ प्रतिध्वनियां मेरे कानों में 21-22 साल बाद आज भी गूंज रही हैं-
 
‘आपकी खातिर अगर हम तोड़ भी लें आसमां
क्या मिलेगा चंद चमकीले से शीशे तोड़कर
चांद चुभ जाएगा उंगली में तो खून आ जाएगा।’
 

एक और कविता देखिए-

‘तमाम सफ़े (पन्ने) क़िताबों के फड़फड़ाने लगे
हवा धकेल के दरवाज़ा आ गई घर में
कभी हवा की तरह तुम भी आया-जाया करो।’

त्रिवेणी के अलावा कुछ लंबी कवितायें/ नज़्में भी उन्होंने सुनाईं। एक कविता की कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं-

‘क़िताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाकातें नहीं होतीं
जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थीं, अब अक्सर
गुज़र जाती हैं कम्प्यूटर के पर्दों पर
बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें...



गुलज़ार : है यार मेरा खुशबू की तरह गुलज़ार : है यार मेरा खुशबू की तरह Reviewed by Manu Panwar on August 18, 2023 Rating: 5

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