राज ठाकरे क्यों ज़रूरी हैं?
मनु पंवार
करन जौहर की फ़िल्म ‘ऐ दिल है मुश्किल’ को तो ख़ैर रिलीज़ होना ही
था और अब वह रिलीज़ हो भी रही है। लेकिन महाराष्ट्र सरकार के मुख्यमंत्री देवेंद्र
फडणवीस की मौजूदगी में राज ठाकरे ने फ़िल्म के निर्माताओं से जो रंगदारी वसूलने का
फॉर्मूला पेश किया है, वह सबसे हैरान कर देने वाला है। फॉर्मूला यह है कि 5 करोड़ रुपये की 'राष्ट्रवादी रंगदारी' दो और फ़िल्म रिलीज़ कराओ। तब इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसमें ‘दुश्मन देश’ के कलाकार काम कर रहे हैं। वैसे
जानने वाले जानते हैं कि राज ठाकरे के लिए रंगदारी वसूलना, ऐसी उगाहियां करना कोई
नया धंधा नहीं है, लेकिन इस बार की रंगदारी को उन्होंने राष्ट्रवाद का जामा पहना
लिया। जब बहती गंगा में सब हाथ धो रहे हैं,तो राज ठाकरे ऐसा सुनहरा अवसर भला क्यों जाने देते? मगर सबसे
ताज्जुब की बात तो यह है कि फडणवीस सरकार ने राज ठाकरे को बाकायदा बिचौलिया बनने
का पूरा-पूरा मौका दिया। तो क्या यह खेल उतना ही है, जितना दिख रहा है या इसके
पीछे भी कोई और गेम चल रहा है? यह समझने के लिए थोड़ा पीछे जाना होगा।
2006 से 2016. दस साल का
वक़्त इतना ज़्यादा भी नहीं होता कि उस पर विस्मृतियों की धूल अपनी परतें चढ़ा जाए। अपने
बूते राज ठाकरे की राजनीति को इतना ही वक़्त हुआ है। अभी एक ही दशक हुआ है जब
उन्होंने अपने चाचा और शिवसेना के चीफ बाल ठाकरे से सनसनीखेज बगावत की थी और खुद
की पार्टी बनाई थी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना यानी मनसे यानी एमएनएस। यह 2006 की
बात है।
राज ठाकरे भले ही अपने चाचा
बाल ठाकरे की राजनीतिक पाठशाला से दीक्षित हों, लेकिन उनका सियासी कद बढ़ाने में
जो मददगार रहे, वो शिवसेना नहीं थी। उस वक़्त की कांग्रेस-एनसीपी थी और तत्कालीन
मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख थे। उन्हें राज ठाकरे के रूप में शिवसेना को निबटाने
का बैठे-बिठाये हथियार मिल गया था। देशमुख की सरकार ने ही राज ठाकरे को हीरो बनने
का पूरा अवसर दिया। राज ठाकरे और उनके समर्थक मुंबई की सड़कों पर उत्तर भारतीयों
पर हमले करते रहे, टैक्सीवालों, ऑटोवालों, सब्जी बेचने वालों की पिटाई करते रहे और
देशमुख सरकार खुलेआम हो रही इस गुंडई पर चुप्पी साधे रही। घृणा की भाषा बोलने वाले
राज ठाकरे उन दिनों मीडिया की सुर्खियां बटोरते रहे। नफरत की राजनीति के कंधे पर
सवार होकर वो अपना आधार, अपना रुतबा तो बढ़ाते ही रहे, मीडिया को भी मसाला देते
रहे। टीवी पर उनका इंटरव्यू उन दिनों किसी भी संपादक/ रिपोर्टर के लिए बहुत बड़ा
तीर मारने जैसा था। राज ठाकरे उन दिनों इस कदर छाए हुए रहे कि उत्तर भारतीयों की पिटाई
के मामले में जब मुंबई की एक कोर्ट में सरेंडर करने गए, तो दिनभर टीवी चैनलों ने उन्हें
लाइव दिखाया। घर से लेकर कोर्ट तक पल-पल का लाइव। हम भी इस कृत्य में शामिल
थे। वैसे भी उन दिनों राज ठाकरे न्यूज़ चैनलों की हॉट प्रॉपर्टी हुआ करते थे। उनकी
तूती बोल रही थी। उन दिनों हम एक नए बाल ठाकरे का उभार देख रहे थे।
राज ठाकरे को इन सभी
प्रपंचों का फायदा भी हुआ और साल 2009 के विधानसभा चुनाव में उनके 13 विधायक जीतकर
आए। यह अप्रत्याशित था। कई सीटों पर राज ठाकरे के प्रत्याशी शिवसेना की हार की वजह
बने। इस धमाकेदार एंट्रारी से ज ठाकरे ने सियासी हलकों और सबसे ज्यादा शिवसेना में खलबली मचा दी थी। राज
ठाकरे का सूरज चढ़ रहा था। शिवसेना के कैंप में उदासी थी। तब राज ठाकरे का
कॉन्फिडेंस इस कदर बुलंद था कि जीतने के बाद एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में अमिताभ बच्चन
का एक फ़िल्मी डायलॉग मार दिया- ‘एक मारा पर सॉलिड मारा‘। दरअसल इस डायलॉग के जरिये उन्होंने शिवसेना पर तंज
कसा था। राज ठाकरे को तो फायदा हुआ ही कांग्रेस भी नफे में रही। कांग्रेस और एनसीपी
की रणनीति काम कर गई थी। राज ठाकरे उनके लिए मोहरा थे। उनकी सबसे बड़ी विरोधी
शिवसेना पर उसी के हथियार से गहरी चोट की गई थी। कांग्रेस ने महाराष्ट्र में सत्ता
में वापसी की। शिवसेना का सत्ता में वापसी का सपना 2009 में चकनाचूर हो गया।
लेकिन अब जबकि राज ठाकरे की
राजनीतिक हैसियत कुछ भी नहीं है। विधानसभा में भी उनके विधायकों की संख्या 13 से
घटकर महज 1 तक सिमट गई है। 2014 के लोकसभा चुनाव में उनके सभी प्रत्याशियों की ज़मानत
ज़ब्त हो गई थी। वो अलग-थलग पड़े हुए हैं। अपनी लाइन-लेंग्थ भी खो चुके हैं। उनके कई नेता उन्हें छोड़कर जा चुके हैं। ऐसे
में राज ठाकरे को भला हीरो बनाने की जरूरत क्यों पड़ी? तो इसके पीछे है वही गेम,
जोकि 2006 या 2008 में था। सियासी प्लेयर भले ही बदल गए हों, मगर दुश्मन अब भी वही
है- शिवसेना। जी हां, राज ठाकरे को लेकर जो रणनीति तब कांग्रेस ने अपनाई थी, वही
अब भारतीय जनता पार्टी अपना रही है। उसका भी वही प्लान है, राज ठाकरे के जरिये शिवसेना
को ठिकाने लगाओ। वो इसलिए क्योंकि शिवसेना वक्त-वक्त पर बीजेपी को आंख दिखाती रही
है। कई बार तो उसने सरकार को असहज भी किया है। महाराष्ट्र में होने वाले स्थानीय
निकाय चुनाव में भी शिवसेना ने अकेले चुनाव लड़ने का इरादा सार्वजनिक कर दिया है।
शिवसेना को भी इसका अच्छी तरह से आभास है कि बीजेपी अपने गठबंधन की पार्टियों को
निबटाने में माहिर है। दो-तीन दिन पहले ही उद्धव ठाकरे ने अपने घर में अपनी पार्टी
के नेताओं की मीटिंग में बताया कि शिवसेना के खिलाफ उनकी सहयोगी पार्टी बीजेपी
कैसा गेम खेल रही है। उद्धव ने नवीन पटनायक से लेकर नीतीश तक की मिसाल रखी। कह
दिया कि अकेले लड़ने में ही भलाई है। वैसे भी अब महाराष्ट्र में शिवसेना बीजेपी के
लिए उतनी उपयोगी रही नहीं।
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कार्टून साभार: संदीप अर्ध्वायु, टाइम्स ऑफ इंडिया |
इसीलिए जब ‘ए दिल है मुश्किल फिल्म की रिलीज़ को लेकर
राज ठाकरे और उनकी पार्टी के लोग खुलकर गुंडागर्दी पर उतर आए और फडणवीस सरकार की
तरफ से उन्हें पूरा तवज्जो मिलता रहा, तो मुझे कतई हैरान नहीं हुई। कोई किसी को
खुलेआम धमकी दे रहा है तो यह कानून व्यवस्था का मामला बनता है। ऐसे में सरकारों की
जिम्मेदारी बढ़ जाती है। सरकारों को सख्ती से एक्ट करना होता है। लेकिन यहां तो गुंडई
करने वाले राज ठाकरे को फडणवीस सरकार ने मेहमान की तरह ट्रीट किया। अपने सरकारी
दफ्तर में बातचीत के लिए बुलाया। जहां उन्होंने खुलेआम रंगदारी का फॉर्मूला पेश
किया और उसे भी मान लिया गया। सेना के नाम पर ऐसी राष्ट्रवादी वसूली शायद पहली बार
देखी-सुनी हो। लेकिन इससे फडणवीस सरकार को क्या फर्क पड़ता है। वह तो राजनीतिक
एजेंडे पर काम कर रही है। पूरा गेम बहुत साफ है। बीजेपी कांग्रेस की ही तर्ज पर
राज ठाकरे को हीरो बनाकर शिवसेना को नीचा दिखाना चाहती है।
राज ठाकरे क्यों ज़रूरी हैं?
Reviewed by Manu Panwar
on
October 23, 2016
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