गोरे-काले के फेर में ढेर

मनु पंवार
दैनिक ट्रिब्यून के संपादकीय पेज पर 30/11/16 को प्रकाशित मेरा व्यंग्य
एक बात समझ में नहीं आई कि काला होने में बुराई क्या है? जब नोट हरे-हरे और गुलाबी-गुलाबी हैं, तो धन काला कैसे? हरे और गुलाबी रंग को मिला भी दें, तब भी रंग काला नहीं बनता। इसीलिए कालेधन का रहस्य आज तक समझ में नहीं आया। ये तो खालिस रेसिज़्म का मामला है जी। माने रंगभेद का। गोया काला धन ही पर्याप्त न हो, लोगों की उंगली पर लगाने के लिए सरकार स्याही भी लाई, तो वो भी काली। मानो धिक्कार रही हो, नोट बदलने वाले ! जा, तेरी उंगली पर काली स्याही।

वैसे मुझे ऐसा लगता है कि 2 हज़ार रुपये के नये नोट का रंग गुलाबी बहुत सोच-समझकर रखा गया होगा। अब कोई यह तो नहीं कह पाएगा कि आपके पास जो मनी है वो 'ब्लैक' है, क्योंकि इस नोट का तो रंग ही 'पिंक' अर्थात् गुलाबी है। इससे सरकार को भी यह दावा करने में सुविधा होगी कि उसने देश से ‘ब्लैक’ मनी का सफाया कर दिया। लेकिन सरकार से एक गलती हो गई। जब मोदी साहब ने नोटबंदी के फैसले का ऐलान किया तो शुरू में तो लगा कि चलो, अब कम से कम विधायकों की खरीद-फरोख्त तो सस्ती हो जाएगी। लेकिन अगले ही पल सरकार ने मायूस कर दिया। दो हजार रुपये का नया नोट लाने की घोषणा कर दी। इससे तो विधायकों की खरीद-फरोख्त और महंगी हो जाएगी न भई? फिर सरकारें कैसे गिराएंगे और अपनी कैसे बनाएंगे? यह तो बड़ा महंगा सौदा हो गया है जी। इस पर भी सोचना चाहिए था।

नोटबंदी ने लोकजीवन के बहुत मुहावरों और उक्तियों को भी बदल दिया है. अमिताभ बच्चन का एक फिल्मी डायलॉग साल 1981 से कल तक हिट चल रहा था, ‘हम जहां खड़े होते हैं, लाइन वहीँ से शुरू हो जाती है।‘ लेकिन अब 35 साल बाद नोटबंदी के बीच खड़ा बंदा यह कह रहा है कि ‘हम जहां खड़े होते हैं, कम्बख्त लाइन उससे कई किलोमीटर पहले ही शुरू हो चुकी होती है।‘ पॉपुलर डायलॉग की ऐसी गति होगी, ऐसा महानायक ने भी नहीं सोचा होगा। लाइन पर याद आया। हाल में एक रैली में प्रधानमंत्री ने जनता से कहा, मुझे खड़े होकर आशीर्वाद दें. जनता बोली, जनाब ! हम तो कब से खडे ही हैं जी, कतार में।

इधर, जेटली साहब ने यह कहकर गरीबों को निराश कर दिया कि नोटबंदी से गरीबी कम होगी। गरीब तो बेचारे यही मानकर खुश थे कि इससे अमीरों की अमीरी कम होगी. वैसे नोटबंदी ने कुछ अनोखी तस्वीरें भी दिखाईं। मसलन राहुल गांधी बैंक की कतार में लग गए। असल में राहुल गांधी न तो खुद बदल पाए और न कांग्रेस को ही बदल पाए। तो उन्होंने सोचा होगा कि क्यों न बैंक जाके नोट ही बदल लें. कुछ तो बदलेगा। वैसे सुना जा रहा है कि नोटबंदी से विपक्ष से लेकर सत्तापक्ष तक के नेता, ब्यूरोक्रेट्स, बिजनेसमैन सभी चिंतित हैं। उनकी फिक्र वाजिब है। अरे भई, ऐसे लोगों को तो 4000 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से नोट एक्सचेंज कराने में ही सदियां गुजर जाएंगी। वैसे अभी देखने वाली बात यह भी है कि जिनके नोट नहीं चलेंगे, क्या सोसायटी में उनका सिक्का भी नहीं चलेगा?

लिंक : मेरा यह व्यंग्य 'दैनिक ट्रिब्यून' अख़बार के संपादकीय पेज पर 30 नवंबर 2016 को प्रकाशित हुआ है
गोरे-काले के फेर में ढेर गोरे-काले के फेर में ढेर Reviewed by Manu Panwar on November 30, 2016 Rating: 5

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