चले आए शिवजी की बारात में !

मनु पंवार 
                                      
हमारी नगरी पौड़ी (उत्तराखंड) के क्यूंकालेश्वर में शिव की मूरत

बचपन का किस्सा है. पहाड़ में कई बार स्कूल जाते वक्त कोई किताब, कॉपी या पेन-पेंसिल घर में छूट जाती थी या होमवर्क करके नहीं जाते थे, तो क्लास में मास्साब अक्सर ताना मारा करते थे. कहते-‘क्या शिवजी की बारात में आए हो?’  हमारे मास्टरजी का यह ताना उनका तकियाकलाम टाइप बन गया था. न सिर्फ मास्टरजी के मुंह से, बल्कि घर में भी 'शिवजी की बारात' वाली झिड़की कई बार सही. यह ताना मेरे बालमन में लंबे वक्त तक गूंजता रहा.

तब सोचता था, यार ये शिवजी की बारात का चक्कर क्या है? और फिर शिवजी की ही बारात क्यों? किसी और की क्यों नहीं? आखिर उस बारात में ऐसी क्या ख़ास बात थी कि मास्टरजी और घरवालों ने भी उसे ताना कसने का औज़ार बना दिया? आखिर शिवजी की बारात लोकोक्ति में कैसे बदल गई? न सिर्फ मास्टरजी, बल्कि दूसरे लोग भी झिड़कने लगते, हुंअ...! चले आए शिवजी की बारात में.

मेरे गांव का शिवालय. अपने मोबाइल फोन से लिया फोटो 

तब अपने खुराफ़ाती दिमाग़ में कभी-कभी ऐसा ख्याल भी आता था कि हो सकता है कि शिवजी की बारात बड़ी बिंदास किस्म की रही हो. वो हमारी तरह अराजक और लापरवाह रही हो. वो तमाम औपचारिकताओं और अनुशासन से मुक्त रही हो. उसमें बारातियों के लिए कार्ड की अनिवार्यता न रही हो. शिवजी की बारात में बस दो चीज़ें तय रही होंगी. एक तो दूल्हा, यानी खुद शिवजी और दूसरी दुल्हन, यानी पार्वती जी. लेकिन बारातियों की संख्या फिक्स नहीं रही होगी. शिवजी की बारात में बारातियों की कोई कैटेगरी भी नहीं रही होगी. मतलब बड़े से बड़ा बंदा और छोटा से छोटा शख्स, हर कोई बाराती रहा होगा. गणवेश अर्थात् ड्रेस कोड जैसी कोई चीज़ भी नहीं रही होगी. जो भी और जिस भी दशा में रास्ते में मिला, सब बारात में शरीक हो लिए. बिना किसी फॉर्मैलिटी के. बिना किसी निमंत्रण के.

कैसी थी शिवजी की बारात? 

इस रहस्य को जानने के चक्कर में बचपन में टीवी पर धार्मिक फ़िल्में भी देखीं. धारावाहिक भी देखे. बाद में किताबों से भी इससे जुड़े कुछ सूत्र मिले. तब कुछ ज्ञानचक्षु खुले. तब मालूम हुआ कि शिवजी की बारात तो बड़ी विचित्र किस्म की बारात थी. मान्यताओं के मुताबिक, शिवजी की बारात में देवता तो थे ही, उनके गण भूत, प्रेत, पिशाच आदि भी थे. इसका जिक्र एक छंद में कुछ इस तरह मिलता है-  

गांव के शिवालय की घंटियां बजाने की कोशिश करता मेरा बेटा
'तन कीन कोउ अति पीन पावन कोउ अपावन गति धरें।
भूषन कराल कपाल कर सब सद्य सोनित तन भरें॥
खर स्वान सुअर सृकाल मुख गन बेष अगनित को गनै।

बहु जिनस प्रेत पिसाच जोगि जमात बरनत नहिं बनै॥

(इसका भावार्थ कुछ इस प्रकार है:- कोई बहुत दुबला, कोई बहुत मोटा, कोई पवित्र और कोई अपवित्र वेष धारण किए हुए है। भयंकर गहने पहने हाथ में कपाल लिए हैं और सब के सब शरीर में ताजा खून लपेटे हुए हैं। गधे, कुत्ते, सूअर और सियार के से उनके मुख हैं। गणों के अनगिनत वेषों को कौन गिने? बहुत प्रकार के प्रेत, पिशाच और योगिनियों की जमातें हैं। उनका वर्णन करते नहीं बनता।)

खुद उस बारात के दूल्हा यानी शिवजी की वेशभूषा कैसी थी, इसका जिक्र इस चौपाई में हुआ है-
‘ससि ललाट सुंदर सिर गंगा। नयन तीनि उपबीत भुजंगा॥
गरल कंठ उर नर सिर माला। असिव बेष सिवधाम कृपाला॥


(इसका भावार्थ है:-  शिवजी के सुंदर मस्तक पर चन्द्रमा, सिर पर गंगाजी, तीन नेत्र, साँपों का जनेऊ, गले में विष और छाती पर नरमुण्डों की माला थी। इस प्रकार उनका वेष अशुभ होने पर भी वे कल्याण के धाम और कृपालु हैं)

तो ऐसी थी हिमालयी देव शिवजी की बारात. वैसे मान्यताओं में शिवजी की छवि एक उदार, भोले, सहिष्णु और लोकतांत्रिक देवता की है. लोगों ने शिवजी को कई नाम दिए, जैसे- भोले बाबा, रमता जोगी, शंभूनाथ, महादेव इत्यादि. ऐसे देव जिन्होंने अपने ब्याह में किसी बाराती से नहीं पूछा कि भइया, तुम किसके निमंत्रण पर और ये कैसी वेशभूषा में मुंह उठाकर बारात में चले आए? ऐसा कहा जा सकता है कि शिवजी की बारात के लिए उस दौर में देवताओं के समूहों से लेकर प्रेतों तक सबने अपने क्लास, अपनी विचारधारा, अपनी निजी प्रतिबद्धताओं को भी परे रख दिया होगा. ठीक वैसे ही जैसे चुनावी बारातों में नेता लोग पार्टियों और गठबंधनों की घेरबाड़ तोड़कर कहीं से कहीं पहुंच जाते हैं. मतलब लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया टाइप. लेकिन लगता है कि आज राजनीतिक दलों ने शिवजी की बारात को दूसरे अर्थों में ले लिया. ये भी नहीं देखा कि उनकी चुनावी बारात में बागी-दागी भी साथ हो लिए.

 केदारनाथ की वजह से इस इलाके को केदारखण्ड भी कहा जाता था

'उत्तराखण्ड' नाम का शिव कनेक्शन!

खैर, शिव का वास हिमालय है और वो हिमालयी समाज के देव हैं. मैं भी उसी हिमालयी इलाके का वाशिन्दा हूं. इस नाते तो हम शिव की धरती के लोग हुए. हमारे इलाके का प्राचीन नाम ‘केदारखण्ड’ था. यह केदारभूमि कही जाती रही है. इसका जिक्र ग्रंथों, इतिहास की किताबों और तमाम संदर्भों में मिलता है. आज के 'उत्तराखण्ड' के नामकरण के बीज इसी 'केदारखण्ड' में हैं. हालांकि बीच में कुछ नासमझ लोगों ने अपनी राजनीति के चक्कर में 'उत्तराखण्ड' को 'उत्तरांचल' कर दिया था. वो तो गनीमत है कि नाम वापस हासिल हो गया. बहरहाल, उस मुद्दे पर फिर कभी. हम शिव पर लौटते हैं.

'हरिद्वार' कि 'हरद्वार'?

पहाड़ी लोकजीवन में गांव-गांव शिवजी बसे हैं. हर गांव में शिवालय है.हमारे पहाड़ों में आज भी हरिद्वार को 'हरद्वार' कहा जाता है. 'हर' माने शिव. 'हरद्वार' यानी शिव की धरती का प्रवेश द्वार. ऐसा माना जाता है कि वैष्णव मत के प्रचारकों ने जब से उस धरती पर कदम धरा, तभी से 'हरद्वार' को 'हरिद्वार' कहलाना शुरू हुआ. 'हर' माने शिव और 'हरि' माने विष्णु. ‘हर’ यानी शिव के सबसे बड़े प्रतीक के तौर पर केदारनाथ तो पहले से ही हिमालय में विराजमान थे, बदरीनाथ में विष्णु अर्थात् 'हरि' भी स्थापित हो गए.

तुंगनाथ : पञ्च केदारों में सबसे ऊंचाई पर स्थित शिवालय,     फोटो साभार: कमल जोशी

इस तरह 'शैव' की धरती पर 'वैष्णव' की एंट्री हुई. लेकिन 'हरद्वार' का 'हरिद्वार' हो जाना पहाड़ के लोक में और ज़ुबान पर चढ़ ही नहीं पाया. हिमालयी लोकजीवन में अब भी 'हरद्वार' नाम ही रचा और बसा है. हमारे पहाड़ों में ‘हरिद्वार’ कहने का चलन ही नहीं है. याद रखिएगा, वो 'हर की पैड़ी' है, 'हरि की पैड़ी' नहीं. उद्घोष 'हर-हर महादेव' का होता है, हरि हरि महादेव का नहीं.  आज की पढ़ी-लिखी पी़ढ़ी भले ही उसे हरिद्वार कहती हो, मगर लोक में तो 'हरद्वार' ही है. यह ठीक वैसे ही है जैसे हमारे पहाड़ों में शिमला को 'स्यमला' या 'श्यमला' कहकर पुकारा जाता है. शिमला का मूल नाम 'श्यामला' था, जिसका नामकरण स्थानीय लोकदेवी श्यामला के नाम पर माना जाता है.

कई जगह ऐसे मील के पत्थर भी मिल जाएंगे जिनमें 'हरिद्वार' नहीं 'हरद्वार' लिखा है

एक और दिलचस्प बात ये है कि शिव को लेकर जो कई मान्यतायें जुड़ी हैं, कई किस्से-कहानियां और दंत कथायें जुड़ी हैं, उनका अक्स हम अपने हिमालयी समाज में भी देखते हैं. सीधे, सरल, सच्चे, उत्सवप्रेमी, शांत चित्त, लेकिन जल्दी रूठ जाना, जल्दी गुस्सा हो जाना और फिर जल्दी शांत भी हो जाना. इस तरह अपनी धुन में रमे रहना और दुनियादारी की ज्यादा परवाह न करना. कई मायनों में हिमालयी समाज का व्यवहार, उसका मिजाज भी शिवजी की ही तरह है. हां, लेकिन गनीमत है कि पहाड़ों में बारातों का रंग-ढंग वैसा नहीं है कि किसी को ताना सुनना पडे- चले आए शिवजी की बारात में.
चले आए शिवजी की बारात में ! चले आए शिवजी की बारात में ! Reviewed by Manu Panwar on February 24, 2017 Rating: 5

10 comments

  1. बेहद शानदार..आपका हाथ धार्मिक मामलों में भी सधा हुआ है...

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    1. शुक्रिया भाई. धार्मिक मामले को जरा दूसरे नजरिये से देखने की कोशिशभर की है

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  2. वाह मेरे भाई वाह
    धर्म से लेकर राजनीति तक सभी जगह सुन्दर लेखनी
    और हाँ सभी मास्टर बोलते थे चले आये शिवजी की बारात में
    एक नई जानकरी मिली हर का मतलव शिवजी और हरि का मतलव विष्णु जी
    दूसरी नई जानकारी मिली शिवजी का अक्स हम अपने हिमालयी समाज में भी देखते हैं. जल्दी गुस्सा हो जाना और जल्दी शांत भी हो जाना, अपनी धुन में रमे रहना, दुनियादारी की ज्यादा परवाह न करना. कई मायनों में हिमालयी समाज का व्यवहार, उसका मिजाज भी शिवजी की ही तरह है.

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    1. शुक्रिया नौडियाल जी... पढ़ने और फीडबैक के लिए

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    1. थैंक्यू भाई समय निकालने के लिए

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  4. शानदार.... लेकिन हमेशा से हटकर...। अब ये ना कहना कि बस चले आए शिवजी की बारात में।

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    1. हा हा हा :)
      थैंक्यू टाइप

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  5. जय शिव शंभु, शानदार लेखनी

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