क्यों चूके महाराज?

मनु पंवार
बुझे-बुझे से महाराज नज़र आते हैं

राजनीति बड़ी बेरहम होती है. कभी 'किंगमेकर' कहलाने वाले सतपाल महाराज खुद 'किंग' बनने के चक्कर में रिंग से बाहर कर दिए गए. उत्तराखण्ड का सीएम बनने चले थे, लेकिन पार्टी प्रमुख अमित शाह ने उन्हें त्रिवेंद्र सिंह रावत का प्रस्तावक बनने को मजबूर कर दिया. कुछ ऐसी स्थिति हो गई कि हाथ को आया, मुंह न लगा.देहरादून के एक तीन सितारा होटल में मीडिया के भारी जमावड़े, कैमरों की फ्लश लाइट के बीच नेताओं से फूलों के गुलदस्ते लेने थे, मगर हाय...! ये क्या दिन देखने पड़े..!! भारी मन से नए सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत को गुलदस्ता थमाना पड़ रहा है. सुंदर सपना टूट गया. दिल के अरमां आंसुओं में ढल गए टाइप.

वैसे तो सतपाल महाराज को 1989 से देख रहा हूं. अपनी 'टीन एज' के दौर से. तब उनकी सिर्फ आध्यात्मिक गुरु के तौर पर पहचान थी. अपने लाखों अनुयायियों के लिए वो 'भगवान' जैसे हैं. कई घरों में वह पूजे जाते हैं. उन दिनों उनकी वाणी में एक चुंबक सा था. चेहरे में एक अलग ही तेज था. किशोर उम्र में, जबकि दुनियादारी की ज्यादा समझ नहीं होती, यह ख़ाकसार भी उस वक्त महाराज की वाणी की 'चपेट' में आ चुका है. असल में उन दिनों हमारे शहर पौड़ी के रामलीला मैदान में उनका एक बड़ा सत्संग हुआ था. चूंकि वो जगह शहर के बीचों-बीच है, लिहाजा कुछ देर हम भी रुके. उस वक्त इस बंदे की वाणी को सुनकर ऐसा फील हो रहा था कि बस सुनते रहो...सुनते रहो.

राजनीति के चोले में आध्यात्मिक गुरु

लेकिन अचानक सतपाल महाराज नए अवतार में प्रकट हुए. उन्होंने नेतागिरी का चोला पहन लिया. तब समझ में आया कि इस विराट सत्संग का चक्कर क्या है. उन दिनों जब राजीव गांधी सरकार के खिलाफ हवा बह रही थी, तो सतपाल महाराज ने कांग्रेस जॉइन करने का जोखिम उठाया और चले आए हमारे गढ़वाल संसदीय क्षेत्र में लोकसभा का चुनाव लड़ने. तब वीपी सिंह की हवा थी, सो महाराज जी जनता दल के चंद्रमोहन सिंह नेगी से हार गए. खिलाफ हवा में उनकी हार का मार्जिन था करीब 10 हजार वोट.

उन दिनों पहाड़ के सामान्यजन के बीच सतपाल महाराज बड़ी तोप चीज माने जाते थे. उन्होंने गढ़वाल में जगह-जगह अपने पिता के नाम पर धर्मशालायें खोलीं. उनके पोस्टरों, कैलेंडरों, प्रचार सामग्री में दिखता था कि उनकी कित्ती बड़ी-बड़ी राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय हस्तियों से मेल-मुलाकात, उठना-बैठना है. पहाड़ का सामान्यजन उनके इस विराट आभामंडल के झांसे में आ गया. हम जैसे सामान्यजन भी सोचते थे कि यार ये बंदा तो जोगी टाइप है. राजनीति में समाजसेवा करने उतरा है. अगर यह चुनाव नहीं भी जीता, तो भी अपने दम पर हमारे पहाड़ की सूरत बदलने की कूव्वत रखता है. सड़कों का जाल बिछा सकता है, स्कूल-हॉस्पिटल खुलवा सकता है, बरसों से लटका पौड़ी-देवप्रयाग का पुल तो वह यूं ही बनवा देगा. लेकिन धीरे-धीरे अहसास हो गया कि महाराज तो महाराज हैं. हमारा वो पुल तो तब नहीं बना, लेकिन लोगों ने फिर भी महाराज से उम्मीदों के कई-कई पुल बांध लिए.

देहरादन में बीेजेपी विधायक दल का नेता चुने गए त्रिवेंद्र रावत को बुके भेंट करते सतपाल महाराज


लेकिन 1991 में ही मध्यावधि चुनाव आ गया. हिंदुत्ववादियों ने ऐसी रामलहर फैलाई कि सतपाल महाराज की चुनावी नैय्या फिर डूब गई. बीजेपी ने हेमवती नंदन बहुगुणा के भांजे और रिटायर्ड फौजी अफसर बीसी खंडूड़ी पर दांव खेला. जिन्होंने लहर पर सवार होकर कांग्रेसी सतपाल महाराज को चित कर दिया. लगातार दो चुनावी पराजयों से सतपाल महाराज हिल गए. लेकिन महाराज का भीषण राजनीतिक अवतार दिखा 1996 के लोकसभा चुनाव में. तब वह कांग्रेस से विद्रोह करके बनी पार्टी तिवारी कांग्रेस में थे. यह चुनाव 1994 के ऐतिहासिक उत्तराखण्ड आंदोलन की पृष्ठभूमि में हुआ. बल्कि यूं कहें कि आंदोलन को दगा देकर लड़ा गया. 

तब आंदोलनकारियों ने चुनाव के बायकॉट का एलान किया था. इसका जबर्दस्त असर हुआ भी था. पौड़ी में तो किसी को भी नामांकन नहीं करने दिया गया. पूरे कलक्ट्रेट पर आंदोलनकारियों ने कई दिन तक भीषण किलेबंदी कर ली थी. मगर चुनावबाज़ नेता भला कैसे जाने देते ये मौका? बीसी खंडूड़ी के राइट हैंड तीरथ सिंह रावत (बाद में बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष और मंत्री भी रहे) घेरा डाले आंदोलनकारियों की आंखों में धूल झोंककर न जाने कब कलेक्ट्रेट के अंदर घुस गए और खंडूड़ी का पर्चा दाखिल कर आए. इसकी भनक लगी तो बाहर खलबली मच गई. गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया. उसके बाद तीरथ सिंह रावत का आंदोलनकारियों ने जूतों-लातों से पीट-पीटकर वो हाल किया कि वो जख्म तीरथ सिंह ढाई दशक बाद भी भूले नहीं होंगे.

...वो जातिवादी उन्माद

वैसे उन दिनों लोगों के गुस्से को देखते हुए सतपाल महाराज ने घोषणा की थी कि वह आंदोलनकारियों के साथ हैं और पहले पर्चा दाखिल नहीं करेंगे, जब तमाम प्रतिरोधों के बीच बीजेपी की तरफ से खंडूड़ी ने पहला नामांकन करवा दिया, तो सतपाल महाराज को भी वजह मिल गई. उन्होंने भी पर्चा दाखिल कर दिया. इस बार वो जीतने के लिए आमादा थे. उनके सामने फिर बीजेपी के बीसी खंडूड़ी थे. लेकिन उस चुनाव में सतपाल महाराज ने सब कुछ झोंक दिया. हर हथकंडा अपनाया गया. 

पूरे गढ़वाल क्षेत्र में ठाकुर बनाम बामण का ऐसा जातिवादी उन्माद पैदा किया गया, जो हमने उससे पहले नहीं देखा था. उन दिनों के सार्वजनिक विमर्श में ठाकुर-बामणों के बीच तलवारें खिंची हुई थीं. इसका आरोप लगा सतपाल महाराज के समर्थकों पर. बामणों के इलाके में 'ठाकुरों एक हो' टाइप लिखे पर्चे गुपचुप बंटवाए गए. ठाकुर बहुल इलाकों में 'ब्राह्मणों एक हो' जैसे पर्चे मिले. इतना खतरनाक जातिवादी ध्रुवीकरण हुआ कि खंडूडी उस चुनाव में 15 हज़ार वोटों से ढेर हो गए और सतपाल महाराज ने पहला चुनाव जीत लिया. महाराज को वोट मिले 39.37 प्रतिशत वोट जबकि खंडूडी के खाते में आए 35.76 परसेंट वोट.

महाराज के चेहरे पर उस जीत की चमक ही कुछ अलग थी. मुझे याद है पौड़ी के राजकीय बालिका इंटर कॉलेज (GGIC) में मतगणना चल रही थी. देहरादून की मतगणना में तो सतपाल महाराज बीजेपी के उम्मीदवार बीसी खंडूड़ी से पिछड़ गए थे, लेकिन गढ़वाल संसदीय क्षेत्र में आने वाले बाकी इलाकों पौड़ी, चमोली की मतपेटियों ने उनकी झोली भर दी. मुझे अब भी याद है. काउंटिंग सेंटर में पुलकित सतपाल महाराज 'वी' यानी विक्ट्री का चिह्न बनाते हुए गुजरे. हम मीडियावालो से मुखातिब होकर बोले- 'बदरी-केदार खूब वोट बरसा रहा है.' उस चुनाव में सतपाल महाराज ने हरक सिंह रावत, भरत सिंह चौधरी, सुरेंद्र सिंह नेगी जैसे स्थानीय छत्रपों का बेहतरीन इस्तेमाल किया था. उसी चुनाव के दौरान इस खाकसार को पता चला कि सतपाल महाराज का असली नाम सतपाल सिंह रावत है और वह ठाकुर हैं. और इसकी सार्वजनिक पुष्टि तब हुई जब जीतने के बाद पौड़ी में निकले विजय जुलूस में एक बड़े नेता ने पौड़ी के बस अड्डे के पास भरे मंच से अतिउत्साह में 'सतपाल महाराज-ज़िंदाबाद' की जगह 'सतपाल सिंह रावत-जिंदाबाद' के नारे लगवाए.

खैर, सतपाल महाराज जीत गए. उस समय सेंटर में खिचड़ी सरकार बनी. देवगौड़ा पीएम बने. अपनी ऊंची पहुंच के दम पर सतपाल महाराज सेंटर में मिनिस्टर भी बन गए. वित्त राज्य मंत्री से लेकर रेल राज्य मंत्री तक. उन्होंने पहाड़ों में रेल के बरसों पुराने सपने को फिर से हवा दी. अंग्रेज़ों के दौर में जिस ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल लाइन का सर्वे किया गया था, महाराज ने अपने मंत्रालय से उसका फिर से सर्वे करवाया. अब शायद उस रेल लाइन पर कुछ कागजी काम और आगे बढ़ा है. सुनने में यह हास्यास्पद लग सकता है, लेकिन महाराज ने देहरादून में पहाड़ के लोगों के देखने के लिए ट्रेन का एक इंजन स्थाई तौर पर रखवा दिया. 

वैसे सांसद के रूप में पहाड़ में सेना की अनेक भर्ती रैलियां करवाने का क्रेडिट भी उन्हें दिया जाता रहा है. रेल मन्त्री के बतौर उन्होंनें पहाड़ी लड़कों के लिए रेल सुरक्षा बल में भर्ती के द्वार खोले. वो इकलौते सांसद हैं,जिन्होंने उत्तराखण्ड की लोकभाषाओं गढ़वाली, कुमाऊंनी और जौनसारी को आठवीं अनुसूची में रखवाने के लिये संसद में मांग रखी. 15 अगस्त 1996 को लालकिले के प्राचीर से तत्कालीन प्रधानमंत्री देवेगौड़ा से उत्तराखण्ड राज्य निर्माण का संकल्प जताने का क्रेडिट भी सतपाल महाराज को जाता है.



छवि में कैद महाराज

लेकिन न जाने क्यों वो आध्यात्मिक गुरु और अनुयायियों के बीच 'भगवान' की अपनी इमेज से बाहर नहीं आ पाए. मुझे याद है जब वो बतौर केंद्रीय मंत्री और सांसद हमारी नगरी पौड़ी में दौरे पर आते थे और प्रेस कॉन्फ्रेंस करते थे, तो प्राय: एक दूरी बनाए रखते थे. उन्हें किसी पत्रकार से हाथ मिलाना भी गवारा न था. वो दो छवियों को एक साथ जी रहे थे. अनुयायियों के 'भगवान' और आम जन के सांसद. उसी जनता को उनमें ऐरोगेंस नज़र आने लगा, जिसने उन्हें जिताकर देश की संसद में भेजा था. राजनीति में जिस सरल, सौम्य, सहज व्यवहार की उम्मीद की जाती है, वह उन दिनों सतपाल महाराज में ढूंढे नहीं मिलता था. तब ऐसा लगता था कि मानो वह नेतागिरी में होते हुए भी अपने आध्यात्मिक गुरु वाले आभामंडल में जी रहे हैं.

1998 और 1999 का लोकसभा चुनाव भी वह खंडूड़ी से हार गए थे. साल 2000 में उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद महाराज ने खुद की भूमिका नए सिरे से खंगालनी शुरू की. उन्होंने राजनीति में अपना जलवा कम नहीं होने दिया. वो किंगमेकर बनकर उभरे उत्तराखण्ड के पहले चुनाव में सन् 2002 में. जब कांग्रेस ने उत्तराखण्ड में उनके पसंदीदा उम्मीदवारों को टिकट नहीं दिए तो महाराज ने 70 की 70 सीटों पर अपने कैंडिडेट खड़ा करने की धमकी देकर कांग्रेस आलाकमान को घुटने टिकवाने को मज़बूर कर दिया. कांग्रेस ने कई सीटों से टिकट वापस ले लिए और सतपाल महाराज की मर्जी से बांट दिए. जब चुनाव नतीजे आए तो सतपाल महाराज के साथ 20 विधायक थे. लेकिन हरीश रावत जैसे मंजे हुए नेता को ठिकाने लगाने के लिए उन्होंने दांव चला और चीफ मिनिस्टर बनाए गए नारायण दत्त तिवारी. सतपाल महाराज की पत्नी अमृता रावत, उनके चेले गणेश गोदियाल, टीपीएस रावत समेत उनके कई करीबी तिवारी सरकार में मंत्री बने. खुद महाराज ने एक अहम सरकारी ओहदा झटक लिया.

चमक धुंधलाने लगी

2007 के चुनाव में तिवारी सरकार भी ढह गई. उसके बाद बीजेपी का राज आया. धीरे-धीरे सतपाल महाराज की राजनीति के सूर्य की चमक भी फीकी सी पड़ने लगी. जिन विधायकों और नेताओं के वो किंगमेकर बने थे, वो उनसे एक-एक करके दूर छिटकते चले गए. कांग्रेस ने जब पहले विजय बहुगुणा और फिर हरीश रावत पर दांव चला तो महाराज ने खुद की राह चुन ली. 2014 के शुरुआती दिनों में मौका ताड़कर सतपाल महाराज ने कांग्रेस के कैंप से छलांग लगा ली. 2014 के लोकसभा चुनाव से ऐन पहले महाराज ने बड़ी उम्मीदों के साथ बीजेपी का दामन थामा. तब राजनाथ सिंह बीजेपी के अध्यक्ष थे. महाराज की जिस दिन बीजेपी में भर्ती हुए, वह तस्वीर अब तक याद है. उन्होंने राजनाथ सिंह को झट से गले लगा लिया था. वैसे सतपाल महाराज की हसरत किसी से छिपी नहीं थी. वो उत्तराखंड का सीएम बनना चाहते थे. वो उत्तराखण्ड में तब पहले कांग्रेसी थी जो बीजेपी में गए. उनके दम पर बीजेपी उत्तराखण्ड में कांग्रेस सरकार में सेंधमारी का सपना पाले हुए थी, लेकिन नाकाम रही. लिहाज़ा सतपाल महाराज की रेटिंग बीजेपी में गड़बड़ाने लगी. यह बात अलग है कि वो आरएसएस को अपना धर्म वाला चेहरा दिखाकर प्रसन्न करते नज़र आते हैं.

कार्टून साभार: अरविंद शेखर

एक हाईप्रोफाइल पर्सनैलिटी वाले सतपाल महाराज 2017 के चुनाव में विधायकी का चुनाव लड़ने उतरे तो संदेश साफ था. लोगों को भी लग गया था कि अबके सीएम के प्रबल दावेदार हैं महाराज. सतपाल को भी इस दफा बड़ी उम्मीदें थीं. बीजेपी के टिकट पर वो पहली बार उतरे. पौड़ी गढ़वाल जिले की चौबट्टाखाल सीट से वो जीते भी. वह इस बार मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार भी थे. लेकिन उत्तराखण्ड में बीजेपी को इतना बड़ा बहुमत मिल गया कि सतपाल महाराज के सामने सीएम पद के लिए सौदेबाजी की स्थिति भी न रही. उनका कांग्रेसी अतीत भी आड़े आ गया. बीजेपी ने 'अपने आदमी' पर भरोसा जताया. महाराज के विराट आभामंडल के सामने एक सामान्य से चेहरे-मोहरे वाले शख्स त्रिवेंद्र सिंह रावत के हाथ में सरकार की कमान आ गई. सतपाल महाराज ठगे से रह गए. ऐसा माना जाता है कि यह उनके सरल और सहज न हो पाने के साइड इफेक्ट भी हैं.

अब लोग महाराज की स्थिति पर चुटकियां ले रहे हैं. उनके लिए गढ़वाली की एक कहावत कही जा रही है-'भन्डि खाणो बल जोगि होयूं, पैला बासा भक्कि रयों.'  जिसका भावानुवाद कुछ ये है कि- ज्यादा खाने के चक्कर में जोगी बना लेकिन पहले ही प्रवास में भूखा रह गया.
क्यों चूके महाराज? क्यों चूके महाराज? Reviewed by Manu Panwar on March 17, 2017 Rating: 5

15 comments

  1. शानदार शब्द भी इस लेख के लिए अधूरा है... एक नेता की जन्मकुंडली इससे बेहतर कोई नहीं लिख सकता

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    1. शुक्रिया भाई.. पढ़ने और फीडबैक देने के लिए

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  2. बहुत सही और सटीक समीक्षा ..सायद महराज जी इसे पढ़ कुछ सीक ले सेवा को बिज़नस न बनाये..उत्तराखंड के पलायन पर काम करे .केवल सरकार में आने के लिए दल -बदल नहीं करे |

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  3. बहुत सुन्दर दगड़िया

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  4. महाराज जी को इसे पढ़ना चाहिए ...!!

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    1. शुक्रिया फीडबैक के लिए

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    2. शुक्रिया फीडबैक के लिए

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  5. हिंदी के पूर्ण विराम की जगह अंग्रेज़ी के full stop ने ले ली है।

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    1. हाँ,यह चलन बढ रहा है। हम भी उसकी चपेट में हैं। :)

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    2. हाँ,यह चलन बढ रहा है। हम भी उसकी चपेट में हैं। :)

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  6. बहुत सुन्दर, उत्तराखंड में अभी भी ठाकुर, बामण और गढ़वाली, कुमाउनी बहुत चलता है।

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  7. जी, धन्यवाद।

    ठाकुर बामण आजमाया हुआ फार्मूला है।

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  8. जी, धन्यवाद।

    ठाकुर बामण आजमाया हुआ फार्मूला है।

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  9. शानदार लेख 👍

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