लक्ष्मीजी का विवेकाधीन कोष

 मनु पंवार

सालभर निठल्ला रहने वाला बंदा भी जब दिवाली पर लक्ष्मी के आने की कामना में आधी रात को अपने घर के दरवाज़े खुले रखता है, तो दिवाली की अहमियत समझ में आ जाती है. ऐसा करने से किसके घर लक्ष्मी आई, इसका पता हमको तो आज तक नहीं चल पाया. वैसे हो सकता है कि यह बहुत सीक्रेट होता हो. कोई बंदा इसकी सार्वजनिक स्वीकारोक्ति करने की हिम्मत इसलिए भी नहीं करता हो कि कहीं इनकम टैक्स वाले रेड मारने न धमक जाएं.

एक बार अपने साथ भी ऐसा ही हुआ. दिवाली की रोज़ धर्मपत्नी के कहने पर हमारे घर के दरवज्जे भी खुले रह गए. हमारे एड्रेस पे लक्ष्मी जी तो आई नहीं, चोर-उचक्के टपक पड़े. लो कल्लो बात, गांव बसा नहीं और मंगते पहले आ गए. उन्होंने घुसते ही सीधे कट्टा दिखा दिया. हमारी सिट्टी-पिट्टी गुम. मैंने माहौल को भांपते हुए अपनी दशा/दुर्दशा बयां की. कहा- चोर भाई मैं तो एक निरीह पत्रकार कम लेखक कम ब्लॉगर हूं. सरस्वती का उपासक हूं. इसलिए लक्ष्मी ग़लती से भी पास नहीं फटकती. मैं तो अपनी गृह लक्ष्मी के चक्कर में लक्ष्मी के झांसे में आ गया. न माया मिली न राम. टपक पड़े सुखराम...!

मैंने बोला- चोर भाई, जब मेरे घर लक्ष्मी आएगी, तभी तो आपके हाथ लक्ष्मी लगेगी. चोर को पूरा गणित समझ में आ गया. वह थोड़ा भावुक हुआ. उसने अपने बटुवे से पांच सौ का वही करारा नोट निकाला, जोकि नोटबंदी के बाद मार्केट में आया है. मेरे हाथ में रखा. साथ में सोन पापड़ी का डिब्बा थमाया और ढांढस बंधाते हुए बोला, कोई नहीं ब्रदर..! लक्ष्मी और गृह लक्ष्मी के फेर में मैं भी फंस चुका हूं. इसीलिए ये नौबत आ गई कि अब चोरी करके रिकवरी करने की कोशिश कर रहा हूं. तुम फिलहाल इसे छोटी सी भेंट समझना. अपनी दिवाली अच्छे से मनाओ. 

सीन थोड़ा इमोशनल सा हो गया. चोर की आवाज़ भारी हो रही थी. मेरे हाथ में पांच सौ रुपये और सोन पापड़ी का डिब्बा थमाके वो अपने कट्टाधारी स्वयंसेवकों के साथ बैरंग लौट गया. मैं भी भावुक टाइप हो गया. ऐसा भली मनसाहत वाला चोर मैंने अपनी ज़िंदगी में ना देखा जी.


उस रोज़ आधी रात को लक्ष्मी मेरे हाथ इस अंदाज़ में आई. मगर मैं तब से सोच रहा हूं कि दिवाली और लक्ष्मी का मूल दर्शन तो विजेताओं के साथ है. इनका विजय अर्थात् जीत से डायरेक्ट कनेक्शन है, मैंने तो सरेंडर कर दिया था. फिर मेरे हाथ लक्ष्मी क्यों लगी? कहीं कोई लोचा तो नहीं? कहा तो ये जाता है कि रामचंद्र जी भी जब लंका विजय के 21 दिन बाद लौटे थे, तो पूरी अयोध्या ने दिवाली मनाई थी. इसीलिए जीत की आस में दिवाली पर जहां-तहां जुए के अड्डे सज जाते हैं. लक्ष्मी जी विजेताओं पर जमकर अपना विवेकाधीन कोष बरसाती हैं.

एक बार मैंने सपने में लक्ष्मीजी के सामने सवाल रखा- जो बंदा जुआ जीतता है,आप उसे मालामाल कर डालती हैं. हारा हुआ बंदा कंगाल हो जाता है. इससे देश में जुए का प्रचलन तो बढ़ ही रहा है, भीषण आर्थिक असंतुलन भी पैदा हो रहा है. मेरी बात पर लक्ष्मी जी नाराज़ हो गईं. बोलीं- इसका दोष मुझ पर मत डालो. ज़िंदगी भी एक जुआ है. और जुआ कहां नहीं है. जुआ तो टीवी पर भी खिलाया जा रहा है. सदी के महानायक लोगों को करोड़पति बना रहे हैं. रही आर्थिक असंतुलन की बात, तो इसके लिए तुम्हारी सरकारें दोषी है. उन्होंने ने ही उदारीकरण के द्वार खोले हैं. लक्ष्मी जी ने राजनीतिक सवाल उठा दिया. लक्ष्मी का राजनीति में बड़ा दखल है. लिहाज़ा मेरी बोलती बंद होनी ही थी.

लक्ष्मीजी का विवेकाधीन कोष लक्ष्मीजी का विवेकाधीन कोष Reviewed by Manu Panwar on October 17, 2017 Rating: 5

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