हिमाचल में क्यों होता है टोपियों का सियासी वनवास?

मनु पंवार
 
यह फोटो नए सीएम जयराम ठाकुर के ट्विटर अकाउंट से साभार

हिमाचल प्रदेश में सरकार ही नहीं, एक खास तरह की टोपियां भी सत्ताच्युत हो गई हैं. वीरभद्र सिंह की सरकार जाने के साथ ही उनके ट्रेडमार्क हरी टोपी को भी राजनीतिक वनवास मिला है. अब हिमाचल में कम से कम पांच साल तक मरुन या लाल टोपी का ही राज चलेगा. लिहाज़ा सार्वजनिक जगहों पर अब इसी रंग की टोपियां दिखेंगी. चाहे सरकारी मेहमाननवाज़ी हो, कोई समारोह हो या कोई भी अन्य सार्वजनिक आयोजन हो. ऐसा कोई लिखित आदेश नहीं होता, लेकिन हिमाचल प्रदेश की राजनीतिक संस्कृति में यह एक रीत बन गई है कि टोपियों का रंग सरकारों के हिसाब से बदल जाता है.
 
टोपियों से वफादारी की नुमाइश

वैसे हिमाचल में टोपी पहनने और पहनाने की एक शानदार परंपरा है. लोकजीवन में भी और सरकारी सिस्टम में भी. लेकिन यह 'टोपी पहनाना' वैसा नहीं है, जैसा हम इसे अन्य अर्थों में भी इस्तेमाल करते हैं. हां, इतना ज़रूर है कि हिमाचल की राजनीति दो रंग की टोपियों में बंटी है. हरी पट्टी वाली टोपी मतलब कांग्रेस (वीरभद्र सिंह) के समर्थक और लाल या मरून रंग की टोपी मतलब बीजेपी (प्रेम कुमार धूमल) के समर्थक. 

वीरभद्र और धूमल ने इन टोपियों को सियासी रंग दिया    Pic : Indian Express
राजधानी शिमला में माल रोड से लेकर रिज़ मैदान और माल रोड के ही इंडियन कॉफी हाउस से लेकर सत्ता के गलियारे राज्य सचिवालय और विधानसभा तक टोपी का रंग आपको लोगों की राजनीतिक पहचान आसानी से बता देगा.  

सरकार बदलते ही टोपियां बदलकर पार्टियों/नेताओं के समर्थक और यहां तक सरकारी अधिकारी भी अपनी निष्ठाओं की सार्वजनिक नुमाइश करने का मौक़ा नहीं चूकते. टोपी के ज़रिये वफादारी साबित करने ही होड़ मच जाती है. यह अपने आप में एक भिन्न तरह का राजनीतिक कल्चर है. जिसमें प्रतीकों का अनूठा शक्ति प्रदर्शन होता है. ऐसा शायद ही कहीं और देखने को मिलता हो. हिमाचल मेरी पत्रकारिता की कर्मस्थली रही है,इसलिए अपने अनुभव से यह बात कह सकता हूं.
  कुल्लुवी टोपी सबसे आकर्षक होती हैं    Credits: himbunkar.co.in
हालांकि ऐसा नहीं है कि हिमाचल की राजनीति में टोपियां नहीं उछलतीं या उछाली जातीं. ऐसा भी नहीं है कि इस पहाड़ी राज्य के सिस्टम  में टोपी ट्रांसफर करने का चलन नहीं है. वो सब भी अपनी तरह से है. मगर वहां 'टोपी पहनाने' को वैसे अर्थों में नहीं लिया जाता, जैसा हम लोग लेते हैं.  यह तो हिमाचल में अपने मेहमान के प्रति सम्मान जताने का एक तरीका भर है. इसकी एक दिलचस्प बात ये भी है कि आप टोपी के रंग से हिमाचल के अलग-अलग इलाकों के वाशिंदों की पहचान आसानी से कर सकते हैं. टोपी का रंग और उसका डिजाइन इलाकों का पता बताती है.

किस्म-किस्म की हिमाचली टोपी

हिमाचल से बाहर की दुनिया तो इन टोपियों को सिर्फ़ हिमाचली टोपी के नाम से जानती है, लेकिन उस हिमाचल के भीतर भी कई हिमाचल हैं. उस हिमाचली टोपी के अंदर भी कई हिमाचली टोपियां हैं. जैसे किन्नौरी टोपी, कुल्लुवी टोपी, बुशहरी टोपी, चंबयाली टोपी इत्यादि. नाम से ही पता चल रहा होगा कि ये टोपियां अपने-अपने इलाक़ों की पहचान बता रही हैं. लेकिन हिमाचली लोक जीवन के इस विशिष्ट और ख़ूबसूरत रंग को राजनीति ने कब अपने रंग में ढाल लिया, पता ही नहीं चला.

वीरभद्र की ये बुशहरी टोपी किन्नौरी टोपी से ज़रा सिलाई में जुदा है.  Pic Credits:  @virbhadrasingh
हिमाचल के मुख्यमंत्री रहे वीरभद्र सिंह के सिर पर आपने अक्सर हरी पट्टी वाली गोल हिमाचली टोपी देखी होगी. यह टोपियों का किन्नौर स्टाइल है. किन्नौरी टोपी. हालांकि वीरभद्र सिंह भूतपूर्व रामपुर-बुशहर रियासत के राजवंश से आते हैं. रामपुर-बुशहर आज शिमला ज़िले का हिस्सा है. बुशहर रजवाड़े के वंशज वीरभद्र के सिर पर सजने वाली टोपी को लोग बुशहरी टोपी भी कहते हैं. हरे रंग वाली इस बुशहरी टोपी की हिमाचल की राजनीति में राजा साहब (वीरभद्र सिंह) की टोपी के तौर पर मान्यता है. सन् 1983 में जब वह पहली बार मुख्यमंत्री बने थे, तब से यह टोपी पहन रहे हैं और उनकी देखा-देखी हिमाचल में हरी टोपी चल पड़ी. ऐसी चली कि टोपी कि एक राजनीतिक-प्रशासनिक संस्कृति ही पैदा हो गई. कहा जाता है कि उससे पहले तक हिमाचल में गोटेदार और ज़रीदार टोपियों का ज़्यादा चलन था.

राहुल गांधी को किन्नौरी टोपी पहनाई गई
वीरभद्र के सिर पर सजी यह बुशहरी टोपी किन्नौरी टोपी से ज़रा सी अलग है. किन्नौरी टोपी आम तौर पर हल्के स्लेटी रंग के ऊनी कपड़े से बनती है और इस टोपी में हरी वैलवेट की पट्टी होती है. इसमें हरे शनील के कपड़े के किनारे खुले रखे जाते हैं. इसका सबसे ज़्यादा फायदा तब होता है जब ज़्यादा ठंड पड़ती है. बर्फीली हवायें चलती हैं. शनील के कपड़े के किनारे खुले रखे जाने से किन्नौर के लोग टोपी को उल्टा करके अपने कान भी ढक सकते हैं. किन्नौर में मर्द और औरतों दोनों टोपी पहनते हैं. कई बार पारंपरिक फूलों से सजी ऐसी हरी किन्नौरी टोपी भी आपको दिख जाएगी, जैसी राहुल गांधी ने ऊपर वाली फोटो में पहनी है. यह किन्नौर का अपना अंदाज़ है. 

आजाद भारत के पहले वोटर श्याम शरण नेगी के सिर पर किन्नौरी टोपी है
लेकिन बुशहरी टोपी में कान ढकने की सुविधा नहीं होती. कान नहीं ढके जाते, इसका यह आशय यह मत निकाल लीजिएगा कि राजा साहब (वीरभद्र सिंह) सबकी सुनते होंगे. उनकी टोपी का स्टाइल ही ऐसा है. बुशहरी टोपी में किन्नौरी टोपी की ही तरह आधा हरी पट्टी होती है. लेकिन किन्नौरी टोपी से यह थोड़ा अलग इसलिए होती है क्योंकि इसके किनारे सिले होते हैं यानी हरे रंग वाला हिस्सा टोपी से बिल्कुल जुड़ा रहता है. किन्नौरी टोपी में यह खुला रहता है. वीरभद्र सिंह चूंकि लंबे समय से मुख्यमंत्री रह चुके हैं, इसलिए उनकी हरे रंग वाली बुशहरी टोपी हिमाचल की राजनीति में अपने-आप स्थापित हो गई.

भगवाधारियों के सिर पर लाल टोपी !

जब 1998 में बीजेपी की कई साल बाद हिमाचल की सत्ता में वापसी हुई तो सबसे बड़ा सवाल ये था कि हरी टोपी की इस प्रतीकात्मकता का मुकाबला कैसे किया जाए? सत्ता बदल चुकी थी लेकिन सिस्टम की टोपी हरी ही रह गई. सत्ता परिवर्तन का फील ढंग से नहीं हो पा रहा था. लिहाज़ा बीजेपी ने भी अपनी राजनीति के प्रतीक के तौर पर टोपी का ही सहारा लिया और उसे रंग दिया लाल. जी हां, हिमाचल में भगवा ब्रिगेड को लाल रंग जंचा. धूमल साहब की पुरानी फोटो देखेंगे तो उनके सिर पर लाल टोपी दमक रही है. हालांकि बाद में लाल रंग चुपचाप से मरून में बदल गया. लेकिन बीजेपी वालों के दौर में एक समय लाल टोपी खूब चलन में रही है. अब हिमाचल में सत्ता बदल गई है. भारतीय जनता पार्टी सत्ता में लौट आई है. लिहाजा फिर से इन टोपियों की वापसी हो गई है. ऐसा पांच साल बाद हुआ है.


इस रंग की टोपी को धूमल की वजह से सियासत में जगह मिली   फोटो साभार: @DhumalHP
लाल या मरून रंग की पट्टी वाली टोपी को हिमाचल की राजनीति में प्रतीक बनाने का श्रेय प्रेम कुमार धूमल को है. वह 1998 में पहली बार हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे. वह तभी से यह टोपी पहन रहे हैं. इस तरह धूमल साहब ने तब सिर्फ वीरभद्र सिंह को ही सत्ताच्युत नहीं किया, हरे रंग की टोपी को भी राजनीतिक वनवास पर भेज दिया. इस तरह लाल या मरून रंग की टोपी विशुद्ध रूप से राजनीतिक टोपी कह जा सकता है. धूमल की टोपी को कई लोग बुशहरी टोपी कहते हैं तो कुछ का कहना है कि ये कुल्लुवी टोपी का ही एक रूप है. 

कांग्रेस की हरी टोपी के मुकाबले इस रंग की टोपी हिमाचल में बीजेपी का ट्रेडमार्क बन गई
इस टोपी में लाल या मरून रंग की वैलवेट की एक पट्टी लगी होती है. इस रंग की टोपी की पहचान अब हिमाचल में बीजेपी की टोपियां के तौर पर है. इस तरह की टोपियों को आप इन दिनों हिमाचल के चुनाव में बीजेपी की रैलियों में देख सकते हैं. हिमाचल में बीजेपीवाले अपने बड़े-बड़े नेताओं को ये टोपी पहना रहे हैं. राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह हों, केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह हों या वित्त मंत्री अरुण जेटली. कुछ समय पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इज़राइल दौरे पर यह टोपी पहनी थी. नीचे वो तस्वीर देख सकते हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इज़राइल दौरे पर हिमाचली टोपी पहनी थी
भगवा ब्रिगेड के बड़े-बड़े सूरमा लाल रंग की टोपी पहनने लगे. इसका क्रेडिट हिमाचल की राजनीति को दिया जाना चाहिए. लेकिन हिमाचली टोपियों की कुल्लुवी  शैली वाली टोपियां सबसे ज्यादा चमकदार, सबसे ज्यादा आकर्षक और सबसे ज्यादा लोकप्रिय हैं. इनमें लुभावना डिजाइन भी होता है. आम तौर पर हिमाचली टोपी के नाम पर कुल्लुवी टोपी ही ज्यादा लोकप्रिय है. इस टोपी पर अंग्रेजी के वी और डब्ल्यू जैसी डिजाइन वाली ऊन की कढ़ाई होती है. हालांकि अब कई आकर्षक डिजाइन दिखाई देते हैं.

जब तक शांता तब तक चंबयाली टोपी

शांता कुमार की चंबयाली टोपी
वैसे हिमाचल की राजनीति में एक छोटा सा दौर चंबयाली टोपी का भी आया. चंबयाली टोपी का मतलब चंबा की टोपी. जितना ख़ूबसूरत चंबा, उतनी ही सुंदर चंबयाली टोपी. इस खूबसूरत टोपी को शांता कुमार उन दिनों पहना करते थे, जब वो हिमाचल के सीएम बने थे. शांता कुमार दो बार मुख्यमंत्री रहे. पहली बार 1977-80 तक और दूसरी बार 1990-92 तक. लेकिन इस टोपी का चलन भी शांता कुमार की सरकार के कार्यकाल जितना ही न्यूनतम रहा. शांता सरकार की तरह ही चंबयाली टोपी भी हिमाचल की राजनीति में अब इतिहास हो चुकी है.
( लिंक: मेरा यह ब्लॉग इंडिया टीवी ने अपनी वेबसाइट में भी छापा है)
हिमाचल में क्यों होता है टोपियों का सियासी वनवास? हिमाचल में क्यों होता है टोपियों का सियासी वनवास? Reviewed by Manu Panwar on December 24, 2017 Rating: 5

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