जिगर से बीड़ी जलाने का टाइम आ गया!

मनु पंवार
2018 के बजट पर अख़बारों की सुर्खी
मोदी सरकार के बजट ने बीड़ी-सिगरेट पीने वालों की चिंता बढ़ा दी है। बजट में धुआं उड़ाने के सारे साधनों पर टैक्स बढ़ गया है। वो दिन गए जब हर फिक्र को बंदे धुएं में उड़ा देते थे। अब तो बंदा धुआं भी सोच-समझकर उड़ाएगा। वैसे भी धुएं के लिए आग होनी ज़रूरी है। सुना है आम आदमी के जिगर में बड़ी आग है। बॉलीवुड के गीतकार गुलज़ार भी ऐसा कह गए हैं। इसलिए लगता है कि सरकार ने बीड़ी के दाम बढ़ाकर जिगर से बीड़ी जलाने का बंदोबस्त कर ही दिया है। वैसे जिगर में आग होना सरकारों के लिए खतरनाक है। राजस्थान के हालिया उपचुनाव में तो बीजेपी वाले ही इस आग में अपने हाथ झुलसा गए।

वैसे मानो न मानो, बीड़ी क्रांति का प्रतीक बन गई है। शायद इसीलिए सरकार ने बीड़ी महंगी कर दी। न जलेगी बीड़ी, न उठेगा धुंआ, न होगी क्रांति। सरकार बीड़ी से घबराने लगी है। बीड़ी गुस्सा पैदा करती है। जो चीज गुस्से की वजह बनती हो उस पर टैक्स लगाना जरूरी है। सरकार इसी फॉर्मूले पर चलती है। बड़े बुजुर्ग कहते हैं कि बीड़ी पीने से जिगर फुंकता है। मेडिकल साइंस बीड़ी के इस साइड इफेक्ट को प्रमाणित करता है। लेकिन राजनीति मेडिकल साइंस से नहीं चलती। राजनीति में जिगर होना चाहिए। जिगर में आग भी होगी तो क्रांति होगी। क्रांति तो अन्ना हजारे भी कर रहे थे। लेकिन वह तो बीड़ी नहीं पीते। शायद इसीलिए उनकी क्रांति अनिश्चितकाल के लिए स्थगित चल रही है।

वैसे बीड़ी के बजाय सुपारी महंगी होती तो ज्यादा अच्छा रहता। इसका लाभ यह होता कि सुपारी लेने-देने का कारोबार मंदा पड़ जाता। अपराधों में भी गिरावट आ जाती। कोई बंदा किसी की सुपारी देने से पहले लाख बार सोचता। पुलिस का भी काम हल्का हो जाता। क्यों? आइडिया बुरा है क्या?

लिंक: यह व्यंग्य 'हिंदुस्तान' अख़बार के संपादकीय पेज पर छपे मेरे व्यंग्य का अपडेटेड वर्जन है
जिगर से बीड़ी जलाने का टाइम आ गया! जिगर से बीड़ी जलाने का टाइम आ गया! Reviewed by Manu Panwar on February 02, 2018 Rating: 5

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