चड्ढी पहन के फूल खिला है ! (भाग-2)
मनु पंवार
(गुलज़ार से मुलाकात का पार्ट-1 से आगे का किस्सा इस ब्लॉग में दे रहा हूं। यह आखिरी हिस्सा है। )
गुलज़ार मौज़ूद हों तो उनसे कुछ सुनने की इच्छा रहती है। भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान शिमला के उच्चाधिकारियों ने भी सोचा कि ऐसा दुर्लभ मौक़ा भला क्यों चूकें। तो रात को गुलज़ार का कविता पाठ रखा गया। केवल संस्थान के फैलो और ख़ास मेहमानों के लिए। यह अक्तूबर 2001 की बात है। लाइब्रेरी के पास गलियारे में डायस लगाया गया। उस पर लगे माइक से मैंने अपना रिकॉर्डर वॉकमैन सटा लिया। उन दिनों कैमरे वाले मोबाइल फ़ोन नहीं आए थे।
गुलज़ार मौज़ूद हों तो उनसे कुछ सुनने की इच्छा रहती है। भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान शिमला के उच्चाधिकारियों ने भी सोचा कि ऐसा दुर्लभ मौक़ा भला क्यों चूकें। तो रात को गुलज़ार का कविता पाठ रखा गया। केवल संस्थान के फैलो और ख़ास मेहमानों के लिए। यह अक्तूबर 2001 की बात है। लाइब्रेरी के पास गलियारे में डायस लगाया गया। उस पर लगे माइक से मैंने अपना रिकॉर्डर वॉकमैन सटा लिया। उन दिनों कैमरे वाले मोबाइल फ़ोन नहीं आए थे।
सारे मेहमान नीचे फर्श पर बैठे। सुंदर कालीन बिछे थे। जम्मू कश्मीर के
तत्कालीन डीजीपी खजूरिया साहब (फोटो में शॉल ओढ़े केशविहीन सिर वाले
व्यक्ति) भी पहुंचे हुए थे। वह सबसे आगे पालथी मारकर बैठ गए। अब जब पुलिस
का मुखिया सबसे आगे धूनी रमाके बैठ जाए तो किसी की क्या मज़ाल कि उनसे आगे
बैठे। अमिताभ बच्चन का एक फ़िल्मी डायलॉग याद आ गया- ‘हम जहां खड़े होते
हैं लाइन वहीं से शुरू हो जाती है...।’ कुछ इसी टाइप की सूरत बन गई थी।
बाकी मेहमान डीजीपी साहब के पीछे बैठे। उनमें मैं भी था। फोटो में दिख रहा
हूं। डीजीपी साहब के पीछे वाली महिला के ठीक पीछे।बहरहाल, गुलज़ार साहब डायस पर आए। उनकी आवाज़ में गज़ब का आकर्षण है। बोले कि मैं आपको त्रिवेणी सुनाता हूं। त्रिवेणी यानी उनके अनुसार तीन लाइन की कविता। कुछ प्रतिध्वनियां मेरे कानों में 17 साल बाद आज भी गूंज रही हैं-
‘आपकी खातिर अगर हम तोड़ भी लें आसमां
क्या मिलेगा चंद चमकीले से शीशे तोड़कर
चांद चुभ जाएगा उंगली में तो खून आ जाएगा।’
एक और कविता देखिए-
‘तमाम सफ़े (पन्ने) क़िताबों के फड़फड़ाने लगे
हवा धकेल के दरवाज़ा आ गई घर में
कभी हवा की तरह तुम भी आया-जाया करो।’
त्रिवेणी के अलावा कुछ और कवितायें भी उन्होंने सुनाईं। कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं-
‘क़िताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थीं
गुज़र जाती हैं अब कम्प्यूटर के पर्दों पर।’
‘क़िताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थीं
गुज़र जाती हैं अब कम्प्यूटर के पर्दों पर।’
(समाप्त)
चड्ढी पहन के फूल खिला है ! (भाग-2)
Reviewed by Manu Panwar
on
November 25, 2018
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