दिल्ली की गलियों में फंसे गालिब

मनु पंवार

पुरानी दिल्ली में ग़ालिब की हवेली में उनकी प्रतिमा         फोटो साभार: अधीर रोहाल

कल चचा ग़ालिब सपने में आए। बड़े भयभीत दिख रहे थे। बंदे उनकी 'घर वापसी' कराने पर आमादा हैं। इन दिनों व्हाट्सऐप से लेकर तमाम सोशल मीडिया पर एक लंबा मैसेज घूम भी रहा है, जिसका शीर्षक ही ये है-'ग़ालिब का असली नाम गुलाब सिंह था।' अब चचा ग़ालिब तो बुरी तरह फंस गए। उनकी तो उम्र दिल्ली की गलियों में कट गई। अब भला इस उम्र में कहां जाएं? मुझे तो इस सिचुएशन मे मशहूर शायर ज़ौक साहब का शेर याद आ रहा है- जाओगे कहां गालिब दिल्ली की गलियां छोड़कर..।

वैसे ज़ौक साहब का यह शेर मुझे छोटी उम्र से ही बड़ा बेचैन करता रहा है। आखिर शायर ने ऐसा क्यों कहा कि-जाओगे कहां गालिब दिल्ली की गलियां छोड़कर..।  फिर सोचने लगा कि आज की ही तरह शायद गालिब के टाइम पर भी दिल्ली गलियों का शहर रहा होगा। ग़ालिब किसी गली में किरायेदार रहे होंगे। अपनी बिंदास लाइफ स्टाइल की वजह से कई महीने से वह किराया नहीं चुका पाए होंगे और मकान मालिक से बचते-बचते फिर रहे होंगे। फिर एक दिन ऐसा हुआ होगा कि मकान मालिक ने उन्हें रंगे हाथ धर-दबोचा होगा और फिर तंज कसा होगा- जाओगे कहां ग़ालिब....। यानी बेटा बचके कहां जाओगे? 
 
सौ. rekhta.org

लेकिन इस खाकसार की उत्सुकता यह जानने में है कि क्या तब के मकान मालिक भी दिल्ली के अब के मकान मालिकों की तरह ही निष्ठुर और निर्दयी रहे होंगे? क्या तब भी एक कमरे के बीच में पार्टिशन करके मकान मालिक बड़ी बेशर्मी से दो कमरों के फ्लैट का किराया वसूलते रहे होंगेक्या तब भी किरायेदार से ग्यारह महीने के रेंट एग्रीमेंट पर दस्तखत करवाने का प्रचलन रहा होगा? क्या तब भी मकान मालिक किरायेदार को हर बारहवें महीने में दस परसेंट के हिसाब से प्रति माह किराया बढ़ाने की पूर्व चेतावनी देते रहे होंगेक्या ग़ालिब के जमाने में भी किरायेदार पानी ज्यादा मत खर्च करो, बिजली ज्यादा मत फूंको, पानी की मोटर ज्यादा देर मच चलाया करो, रात को जल्दी घर आया करो, कमरे के भीतर शोर-शराबा और गाना-बजाना बंद करो जैसे मकान मालिकों के रोजमर्रा के ताने सुनते रहे होंगेक्या उस दौर में भी मकान मालिक इनकम टैक्स वालों से अपनी किराये से होने वाली आमदनी को छिपाते रहे होंगे? और क्या तब भी किरायेदार अपने दफ्तरों में किराये की फर्जी रसीदें पेश करके किराये भत्ते यानी एचआरए में टैक्स से राहत पाने की कला सीख गए होंगे?
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नादानी के उस दौर में तब हम यह भी सोचते थे कि हो सकता है कि तब दिल्ली की किसी तंग गली में गालिब की रिहाइश रही होगी। उस गली में हर हफ्ते भीड़ और कोलाहल भरे सोम बाजार, मंगल बाजार या बुध बाजार जैसे साप्ताहिक बाजार लगते रहे होंगे। चूंकि छोटे से लेकर बड़े हर तबके और हर उम्र के लोग उनके मुरीद रहे हैं, इसलिए उनमें से कुछ मुरीदों को गालिब की यह स्थिति देखी न गई होगी।उन्होंने नेताओं और मंत्रियों से सिफारिश करवाकर लुटियन्स जोन टाइप दिल्ली के पॉश इलाके में गालिब को एक कोठी अलॉट करवा दी हो और उनके के लिए संस्कृति मंत्रालय जैसी सरकार की बड़ी संस्थाओं से पेंशन का जुगाड़ करवा दिया हो। लेकिन गली के शायरी पसंद लोगों ने गालिब को वहां से जाने न दिया हो। धरना, प्रदर्शन इत्यादि का आयोजन कर दिया गया हो। ऐसी ही सिचुएशन में किसी ने गालिब से मुखातिब होकर कह दिया हो कि जाओगे कहां ग़ालिब...। फिर यह हुआ होगा कि यह सुनकर गालिब द्रवित हो गए हों और उन्होंने पॉश इलाके में शिफ्ट होने का अपना प्रोग्राम रद्द कर दिया हो।
बल्लीमारान में ग़ालिब की हवेली 
फोटो साभार: अधीर रोहाल
वैसे आज तंग और मैली कुचैली गलियों में रहने वाले ज्यादातर दिल्लीवालों का यही सपना होता है कि एक दिन किसी बिल्डर की बनाई हाउसिंग सोसायटी में टूबीएचके वाले फ्लैट में रहे। गलियों में किराये के मकानों में परिवार के साथ जीवन गुजारना बड़ा कष्टकारी है। अव्वल तो मकानों में वेंटिलेशन की समस्या है। ऊपर से पानी, बिजली, सीवरेज, जल निकासी, साफ-सफाई इत्यादि का झंझट अलग से है। वो आज का दौर तो था नहीं कि मोदी सरकार या केजरीवाल सरकार उन कॉलोनियों का नियमितीकरण कर देती।

ग़ालिब की निशानियां 
फोटो साभार: अधीर रोहाल
दिल्ली की गलियों में इमारतें इस कदर सटी हैं कि जिस बिल्डिंग में आप किरायेदार हैं, वो बिल्डिंग सामने वाली इमारत से आलिंगन करने को उतावली प्रतीत होती है। हां, इसका एक फायदा आपको यह है कि आप सामने वाली बिल्डिंग में रहने वाले या रहने वाली से आसानी से पींगें बढ़ा सकते हैं। कई बार तो ऐसी नौबत भी आ जाती है कि छौंका आपके किचन में लगा और खाना खाने के लिए सामने वाला यह समझकर हाथ धोने लगा कि उसके किचन में खाना तैयार हो गया है। ऐसी तंग गलियों के मकानों में ये रिस्क भी है कि आपके घर का दरवाज़ा खुले और सामने वाले के गुसलखाने के दर्शन हों। 

लेकिन फिर भी सवाल अपनी जगह कायम है। जौक साहब ने अपनी शायरी में ऐसा क्यों कहा कि जाओगे कहां गालिब दिल्ली की गलियां छोड़कर? मामला बड़ा ही पेचीदा है। आपको कुछ समझ आए तो मुझे भी बताएं।
दिल्ली की गलियों में फंसे गालिब दिल्ली की गलियों में फंसे गालिब Reviewed by Manu Panwar on November 17, 2018 Rating: 5

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