चड्ढी पहनके फूल खिला है !
मनु पंवार
गुलज़ार से मेरा परिचय इंस्टीट्यूट के एक तत्कालीन अधिकारी अशोक शर्मा ने कराया। गुलज़ार वहां तीन दिन रहे। मैंने अपने दफ़्तर से तीन दिन की छुट्टी ले ली। गुलज़ार साहब के इर्द-गिर्द रहा। उनसे गपशप, बातचीत करता रहा। रिकॉर्डिंग की सुविधा वाला वॉकमैन मेरे साथ था। तीन दिन लगातार मिलते-जुलते रहने की वजह से वह थोड़ा अनौपचारिक भी हो गए थे। इसका मैंने फायदा उठाया। उनके साथ था, तो वाइसरीगल लॉज के उस कमरे में भी पहुंच गया जोकि कभी लॉर्ड माउंटबेटन का बेडरूम हुआ करता था। उसी के बगल में लेडी माउंटबेटन का बेडरुम भी देखा, वरना आम विजिटर्स को इन ख़ास जगहों में नहीं जाने दिया जाता। मेरे लिए यह मौका अतीत के गलियारों में चहलकदमी करने जैसा भी था.
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सारे मेहमान नीचे फर्श पर बैठे। सुंदर कालीन बिछे थे। जम्मू कश्मीर के
तत्कालीन डीजीपी खजूरिया साहब (फोटो में शॉल ओढ़े केशविहीन सिर वाले
व्यक्ति) भी पहुंचे हुए थे। वह सबसे आगे पालथी मारकर बैठ गए। अब जब पुलिस
का मुखिया सबसे आगे धूनी रमाके बैठ जाए तो किसी की क्या मज़ाल कि उनसे आगे
बैठे। अमिताभ बच्चन का एक फ़िल्मी डायलॉग याद आ गया- ‘हम जहां खड़े होते
हैं लाइन वहीं से शुरू हो जाती है...।’ कुछ इसी टाइप की सूरत बन गई थी।
बाकी मेहमान डीजीपी साहब के पीछे बैठे। उनमें मैं भी था। हाफ सफेद सी स्वेटर पहने मैं भी फोटो में दिख रहा
हूं। डीजीपी साहब के पीछे बैठी बॉब कट वाली भद्र महिला के ठीक पीछे। उन महिला का नाम रमा शर्मा है, जो उन दिनों हमारे सबसे बुजुर्ग सखी थीं और नवभारत टाइम्स के लिए लिखती थीं.
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बहरहाल, गुलज़ार साहब डायस पर आए। उनकी आवाज़ में गज़ब का आकर्षण है। चश्मा उतारा। बोले कि मैं आपको त्रिवेणी सुनाता हूं। त्रिवेणी यानी उनके अनुसार तीन लाइन की कविता या तीन मिसरों की नज़्म। कुछ प्रतिध्वनियां मेरे कानों में 17 साल बाद आज भी गूंज रही हैं-
‘आपकी खातिर अगर हम तोड़ भी लें आसमां
क्या मिलेगा चंद चमकीले से शीशे तोड़कर
चांद चुभ जाएगा उंगली में तो खून आ जाएगा।’
उनकी सुनाई एक और नज़्म देखिए-
‘तमाम सफ़े (पन्ने) क़िताबों के फड़फड़ाने लगे
हवा धकेल के दरवाज़ा आ गई घर में
कभी हवा की तरह तुम भी आया-जाया करो।’
त्रिवेणी का एक और मिसरा ये रहा-
रात के पेड़ पे कल ही तो उसे देखा था-
चांद बस गिरने ही वाला था फ़लक से पक कर
सूरज आया था, ज़रा उसकी तलाशी लेना।
इस तीन मिसरे की त्रिवेणी के अलावा कुछ लंबी नज़्में भी उन्होंने सुनाईं। कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं-
‘क़िताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थीं
अक्सर गुज़र जाती हैं अब कम्प्यूटर के पर्दों पर
किताबों से जो ज़ाती राब्ता था, कट गया है
कभी सीने पे रख के लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे
कभी घुटनों को अपने रेहल की सूरत बना कर
नीम सज्दे में पढ़ा करते थे, छूते थे जबीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइंदा भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे
सूखे फूल और महके हुए रुकए
किताबें मांगने, गिरने ,उठाने के बहाने
रिश्ते बनते थे
अब उनका क्या होगा... !!
( यह गुलज़ार से सिर्फ़ एक मुलाक़ात का किस्सा नहीं है. पूरे तीन दिन और कई-कई घंटे उनके साथ रहा. बातचीत हुई. गपशप हुई. जानना-समझना हुआ. उनकी शायरी भी सुनी. एक छोटे से पहाड़ी नगर से आए मेरे जैसे नये-नवेले पत्रकार के लिए यह उन दिनों यह एक 'फैन मोमेंट' भी था. उनके जन्मदिन के बहाने याद आया.)
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वाइसरीगल लॉज के ऑफिस वाले हिस्से में गुलज़ार के साथ एक चित्र |
गुलज़ार साहब के मुरीद बहुत लोग हैं। ख़ासकर फ़िल्मी गीतों में उनकी शब्दों
की बाज़ीगरी के, जो सुर के कांधे पे सवार होकर कानों में कुछ-कुछ घोल जाते
हैं। उन्होंने प्रतीकों और बिंबों का गज़ब इस्तेमाल किया है। 'मेरा कुछ
सामान तुम्हारे पास पड़ा है..., 'सारा दिन सड़कों पे खाली रिक्शे सा
पीछे-पीछे चलता है...', 'जा पड़ोसी के चूल्हे से आग लेईले...', 'है यार
मेरा खुशबू की तरह है/उसकी जु़बां उर्दू की तरह...', 'आ धूप मलूं मैं
तेरे हाथों में...'। ऐसे न जाने कितने ही गीत हैं जिनमें गुलज़ार चौंकाते
हैं। हालांकि कुछ समय पहले 'इब्ने बतूता...' गीत के विवाद ने उनकी भारी
फज़ीहत करा दी थी। उन्होंने इस गीत में हिंदी के बड़े कवि सर्वेश्वर दयाल
सक्सेना की एक कविता का मुखड़ा उठा लिया था।
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गुलज़ार और मेरे बीच IIAS के अधिकारी अशोक शर्मा हैं |
मेरी गुलज़ार साहब से
मुलाक़ात अक्तूबर 2001 में हुई। आज से करीब 17 साल पहले। तब मैं शिमला में 'अमर उजाला' अख़बार में संवाददाता था। उन दिनों शिमला में ठंड
दस्तक देने लगी थी। गुलज़ार इंडियन इंस्टीट्यूट
ऑफ एडवांस स्टडीज़ शिमला में किसी कार्यक्रम में आए हुए थे। यह
इंस्टीट्यूट ब्रिटिशकालीन
इमारत वाइसरीगल लॉज में है। जो ब्रिटिश इंडिया में ब्रिटिश वाइसराय का
निवास हुआ
करता था। यहीं भारत विभाजन पर अंतिम मुहर लगी थी। वाइसरीगल लॉज को ब्रिटिश आर्किटेक्ट हेनरी इरविन ने डिजाइन किया
था और वाइसराय लॉर्ड डफरिन के कार्यकाल में 1880 में इसका
निर्माण शुरू हुआ
था। 1888 में ये बनकर तैयार हुआ।
गुलज़ार से मेरा परिचय इंस्टीट्यूट के एक तत्कालीन अधिकारी अशोक शर्मा ने कराया। गुलज़ार वहां तीन दिन रहे। मैंने अपने दफ़्तर से तीन दिन की छुट्टी ले ली। गुलज़ार साहब के इर्द-गिर्द रहा। उनसे गपशप, बातचीत करता रहा। रिकॉर्डिंग की सुविधा वाला वॉकमैन मेरे साथ था। तीन दिन लगातार मिलते-जुलते रहने की वजह से वह थोड़ा अनौपचारिक भी हो गए थे। इसका मैंने फायदा उठाया। उनके साथ था, तो वाइसरीगल लॉज के उस कमरे में भी पहुंच गया जोकि कभी लॉर्ड माउंटबेटन का बेडरूम हुआ करता था। उसी के बगल में लेडी माउंटबेटन का बेडरुम भी देखा, वरना आम विजिटर्स को इन ख़ास जगहों में नहीं जाने दिया जाता। मेरे लिए यह मौका अतीत के गलियारों में चहलकदमी करने जैसा भी था.
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वॉयसरीगल लॉज की नक्काशी को निहारते गुलज़ार |
उसी दौरान एक दिन लंच करने के बाद हम
गुनगुनी धूप में वाइसरीगल लॉज के आंगन की मखमली घास पर टहल रहे थे। आपको बता दूं, जिस आंगन (लॉन) की बात मैं कर रहा हूं उसके ठीक नीचे अंग्रेज़ों ने अंडरग्राउंड वाटर टैंक बनवाया हुआ है. उसी से वाइसरीगल लॉज के शौचालयों, बगीचों इत्यादि के लिए पानी की सप्लाई की जाती है। उस लॉन में पर्यटकों को नहीं जाने दिया जाता ताकि वाटर टैंक पर दबाव न पड़े।
बहरहाल, लॉन में टहलते-टहलते मैंने बातों-बातों में गुलज़ार साहब से जिज्ञासावश पूछ लिया- सर, ये जो आपने नब्बे के दशक में गीत लिखा था कि...जंगल-जंगल पता चला है /चड्ढी पहनके फूल खिला है...क्या इसका आरएसएस और बीजेपी से भी कोई कनेक्शन है? गुलज़ार थोड़ा ठिठके। फिर एक ज़ोरदार ठहाका मारा। मेरे कंधे पर थपकी मारी और आगे बढ़ गए। कहा कुछ नहीं।
बहरहाल, लॉन में टहलते-टहलते मैंने बातों-बातों में गुलज़ार साहब से जिज्ञासावश पूछ लिया- सर, ये जो आपने नब्बे के दशक में गीत लिखा था कि...जंगल-जंगल पता चला है /चड्ढी पहनके फूल खिला है...क्या इसका आरएसएस और बीजेपी से भी कोई कनेक्शन है? गुलज़ार थोड़ा ठिठके। फिर एक ज़ोरदार ठहाका मारा। मेरे कंधे पर थपकी मारी और आगे बढ़ गए। कहा कुछ नहीं।
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गुलज़ार मौज़ूद हों तो भला शायरी का वो कौन रसिक नहीं होगा जो उनसे कुछ सुनने की इच्छा न रखता हो। भारतीय उच्च
अध्ययन संस्थान शिमला के उच्चाधिकारियों और वहां के फैलो ने भी सोचा कि ऐसा दुर्लभ मौक़ा
भला क्यों चूकें। तो रात को गुलज़ार का कविता पाठ रखा गया। केवल संस्थान के
फैलो और ख़ास मेहमानों के लिए। यह अक्तूबर 2001 की बात है। लाइब्रेरी के
पास गलियारे में डायस लगाया गया। उस पर लगे माइक से मैंने अपना रिकॉर्डर
वॉकमैन सटा लिया। उन दिनों कैमरे वाले मोबाइल फ़ोन नहीं आए थे।

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बहरहाल, गुलज़ार साहब डायस पर आए। उनकी आवाज़ में गज़ब का आकर्षण है। चश्मा उतारा। बोले कि मैं आपको त्रिवेणी सुनाता हूं। त्रिवेणी यानी उनके अनुसार तीन लाइन की कविता या तीन मिसरों की नज़्म। कुछ प्रतिध्वनियां मेरे कानों में 17 साल बाद आज भी गूंज रही हैं-
‘आपकी खातिर अगर हम तोड़ भी लें आसमां
क्या मिलेगा चंद चमकीले से शीशे तोड़कर
चांद चुभ जाएगा उंगली में तो खून आ जाएगा।’
उनकी सुनाई एक और नज़्म देखिए-
‘तमाम सफ़े (पन्ने) क़िताबों के फड़फड़ाने लगे
हवा धकेल के दरवाज़ा आ गई घर में
कभी हवा की तरह तुम भी आया-जाया करो।’
त्रिवेणी का एक और मिसरा ये रहा-
रात के पेड़ पे कल ही तो उसे देखा था-
चांद बस गिरने ही वाला था फ़लक से पक कर
सूरज आया था, ज़रा उसकी तलाशी लेना।
इस तीन मिसरे की त्रिवेणी के अलावा कुछ लंबी नज़्में भी उन्होंने सुनाईं। कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं-
‘क़िताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थीं
अक्सर गुज़र जाती हैं अब कम्प्यूटर के पर्दों पर
किताबों से जो ज़ाती राब्ता था, कट गया है
कभी सीने पे रख के लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे
कभी घुटनों को अपने रेहल की सूरत बना कर
नीम सज्दे में पढ़ा करते थे, छूते थे जबीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइंदा भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे
सूखे फूल और महके हुए रुकए
किताबें मांगने, गिरने ,उठाने के बहाने
रिश्ते बनते थे
अब उनका क्या होगा... !!
चड्ढी पहनके फूल खिला है !
Reviewed by Manu Panwar
on
December 29, 2018
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