बहुत शॉर्ट टेम्पर्ड हो गई है ये भावना !
मनु पंवार
तुलसीदास की चौपाई की इन पंक्तियों को हम बचपन से सुनते आ रहे हैं-जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी...अर्थात्
जिसकी जैसी भावना जैसी होती है, उसे वैसी ही मूरत नज़र आती है. ये
तुलसीदास जी की अपनी फिलॉसफी है. लेकिन इससे एक बात तो समझ में आ गई कि
सारा चक्कर भावना का है. हमने तो वो समय भी देखा है कि इस भावना के चक्कर
में बंदे दुर्भावना को मुंह ही नहीं लगाते थे. भावना में ही संभावना देखी
जाती थी. बस भावना-भावना का कोरस चलता रहता था.
उन
दिनों भावना की प्रवृत्ति भी ऐसी नहीं थी. सामने वाले से अगर थोड़ा सा
ऊंच-नीच, थोड़ा उन्नीस-बीस भी हो जाए, तब भी बुरा नहीं मानती थी. बड़े दिल
की थी जी वो भावना. छोटी-मोटी चीज़ों को तो सीरियसली लेती ही नहीं थी. हमें
उस पर बड़़ा भरोसा था. बड़ा सम्मान था उसके प्रति. उसके धैर्य, उसकी
उदारता, उसकी सहिष्णुता पर बड़ा नाज़ था. बड़ी डेमोक्रेटिक थी. मगर न जाने
अब क्या हुआ. लगता है कि भावना अब पहले जैसी नहीं रही. उस पर भी बाहरी मौसम
का असर दिख रहा है. असहिष्णुता की चपेट में आ गई है जी ये भावना.
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न
जाने क्यों ये कम्बख्त बात-बात पे आहत हो जाती है. उसकी आहत होने की
फ्रीक्वेंसी अचानक बढ़ गई है. बहुत ही शॉर्ट टेम्पर्ड हो गई है. कभी किसी
फिल्म पर, कभी किसी नाटक पर, कभी किसी कार्टून पर, कभी किसी पेंटिंग पर,
कभी किसी लेख पर, कभी किसी बयान पर और यहां तक कि सोशल मीडिया की किसी
मामूली सी पोस्ट पर भी तुनक जाती है जी. पहले कभी छठी-छमाही पर भावना आहत
होती थी, तो विधिवत् कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाती थी. उसे देश के कानून पर
भरोसा था. अब उसकी हिम्मत तो देखो कि सीधे सड़क पर हिसाब चुकता करने उतर
आती है. फैसला एट द स्पॉट टाइप.
लेकिन मुझे फील हो गया कि ये बात भावना के दिल को लग गई. ऐसा लगा कि मैंने उसे आहत कर दिया. मेरी नसीहत पर भावना भड़क गई. अब मुझे डर लग रहा है. भावना भड़काने के जुर्म में कहीं धर न लिया जाऊं.
बहुत शॉर्ट टेम्पर्ड हो गई है ये भावना !
Reviewed by Manu Panwar
on
December 08, 2018
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