गांव डायरी-1 : वो ढलाऊ छत वाले पहाड़ी मकान कहां गए?
मनु पंवार
(डिस्क्लेमर : यह लेख इस ब्लॉग के मिजाज से जुदा है. लेकिन हाल में अपने गांव जाना हुआ सरकारी दस्तावेजों में गांव का नाम है केसुंदर, लेकिन केंद्र नाम से जाना जाता है। उत्तराखण्ड के पौड़ी गढ़वाल ज़िले में पड़ता है। इस यात्रा के दौरान कई चीजें महसूस कीं, जिन्हें शब्दबद्ध कर रहा हूं. सभी फोटो मेरे अपने मोबाइल कैमरे से हैं। )
ये तस्वीरें हमारे गांव की हैं। ढलाऊ छत वाले मिट्टी-पत्थर के ऐसे मकान हमारे पहाड़ी गांवों की ख़ास पहचान रहे हैं। इनकी सबसे बड़ी खासियत तो ये है कि ये बर्फीले/सर्द मौसम में भी आपको गुमटी (गर्माहट) देते हैं। मिट्टी के फर्श तापमान को मेन्टेन किये रखते हैं, चाहे सर्दी हो या गर्मी।
ढलाऊ छत पर पठाल लगी है। स्लेट भी कह सकते हैं (हिमाचल के गांवों में स्लेट ही कहा जाता है)। बड़ी सी चट्टान को तोड़कर उससे इन पठालों को तराशा जाता रहा है। कई जगह इन पठालों की खान भी होती है। लकड़ी की मोटी-मोटी और गोलाकार बल्लियों (जिन्हें गढ़वाली में द्वार कहा जाता है) और फट्टों (गढ़वाली में पटेला) को बिछाकर छत और फर्श तैयार किए जाते हैं। ऐसे घरों के निर्माण हमारे गांवों में सामुदायिकता की शानदार मिसाल भी रहे हैं।
किसी का ऐसा मकान बनता था तो उसमें पूरे गांव की भागीदारी होती थी। दूर जंगल में काटे गए द्वार (पेड़ की मोटी बल्लियां) कंधे और सिर पर ढो कर लाना, पत्थरों और मिट्टी की ढुलाई, पानी की व्यवस्था सब कुछ लोग मिल-जुल कर करते थे। कुछ घरों में तो ऐसी ज़बरदस्त और तराशी हुई शिलायें लगी हैं, जिनको देखकर पुरखों के पुरुषार्थ को नमन करने का मन करता है। इन घरों को बनाने वाला मिस्त्री प्रायः दलित होता था।
भवन निर्माण की ये बेजोड़ शैली रही है। एक एक बेडौल पत्थर को तराशना, उसको बिछाना, दो पत्थरों के बीच के गैप को पाटने के लिए छोटे-छोटे पत्थर तराशना, ये कोई कम धैर्य का काम नहीँ है।
हमारे यहां ऐसे घर बनने अब लगभग बंद हो गए हैं। तर्क ये है कि उनमें मेहनत और समय बहुत लगता है। कुल मिलाकर श्रम साध्य काम है। लिहाजा इनकी जगह सीमेंट, कंक्रीट, ईंट वाले घर लेते जा रहे हैं। लेकिन ये घर पहाड़ के मिजाज के कतई अनुकूल नहीं हैं। न यहां के भूगोल के और न ही जलवायु के। सीमेंट-कंक्रीट वाले घर गर्मियों में गरम और सर्दियों में चस्से (बेहद ठंडे) होते हैं।
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ऐसी नक्काशी वाले घर भी अब नहीं बनते हैं |
गांव डायरी-1 : वो ढलाऊ छत वाले पहाड़ी मकान कहां गए?
Reviewed by Manu Panwar
on
January 12, 2019
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