बीजेपी के लिए अब खंडूड़ी क्यों नहीं ज़रूरी ?
मनु पंवार
( वैधानिक चेतावनी : यह व्यंग्य नहीं है. चुनावी मौसम के एक राजनीतिक घटनाक्रम पर एक त्वरित टिप्पणी है. इसे उसी तरह समझा और पढ़ा जाए. )
बीजेपी के दिग्गज पूर्व सीएम और केंद्रीय कैबिनेट मंत्री रह चुके भुवन चंद्र खंडूड़ी के बेटे मनीष खंडूड़ी की राजनीति में पैराशूट लैंडिंग हुई, लेकिन बीजेपी में नहीं, कांग्रेस में. ऊपर की दोनों तस्वीरें देहरादून की हैं. जहां राहुल गांधी की रैली हुई. उसी में मनीष खंडूड़ी शामिल हुए. दूसरी तस्वीर में दिख रहा है कि वो मंच पर ही राहुल गांधी से गले भी मिले. यूं चुनावी बेला पर यह कोई असामान्य राजनीतिक घटना नहीं है, लेकिन मनीष चूंकि भुवन चंद्र खंडूड़ी के बेटे हैं, इसलिए इस वाकये को अलग नज़र से देखा जाना स्वाभाविक है.
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मनीष का प्रकट होना भी सबको चौंका गया. खंडूड़ी की करीब तीन दशक की राजनीति में मनीष खंडूड़ी कभी उनके इर्द-गिर्द सार्वजनिक तौर पर दिखे नहीं. उन्होंने बहुत पढ़े-लिखे हैं. अमेरिका में नौकरी की है. अब जब पिता की राजनीति एकदम ढलान पर है, तो वो प्रकट हो गए. पिता के नाम के सहारे वो राजनीति की खुरदरी ज़मीन पर उतर पड़े हैं जहां अभी उनका इम्तिहान होना है. मुमकिन है कि उन्हें इस लोकसभा चुनाव में उसी पौड़ी गढ़वाल सीट से उतारा जाए, जहां से उनके पिता इस समय बीजेपी के सांसद हैं. बीसी खंडूड़ी का टिकट कटना वैसे भी तय माना जा रहा है. उनकी सीट पर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल के बेटे शौर्य डोभाल की कब से नज़र थी, लेकिन बाद में कुछ और ही हो गया.
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खंडूड़ी 5 बार के सांसद, 2 बार सीएम, 1 बार केंद्रीय कैबिनेट मंत्री रहे |
लेकिन बीजेपी ने खंडूड़ी के बेटे के कदम को किस कदर दिल पर लिया है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिस दिन खंडूड़ी के बेटे के कांग्रेस में जाने की ख़बर मीडिया में आई, उसी दिन बीजेपी ने कांग्रेस के नेता टॉम वडक्कन को बड़े धूमधाम से अपनी पार्टी में शामिल करा लिया. ऐसी भी ख़बरें आईं कि बीजेपी के नेता बीसी खंडूड़ी के घर पहुंच गए कि अपने बेटे को समझाइए, लेकिन खंडूड़ी ने फैसला बेटे की चॉइस पर छोड़ दिया.
वैसे खंडूड़ी पारंपरिक तौर पर नेता नहीं रहे हैं. उनका उम्र का एक बड़ा हिस्सा फौज में गुजरा है. करीब 35 साल. वह मेजर जनरल हुआ करते थे. जब रिटायर हुए तो बीजेपी ने उन्हें फौरन लपक लिया. इसकी दो बड़ी वजह थी. एक, खंडूड़ी एक जमाने के दिग्गज नेता हेमवती नंदन बहुगुणा के भांजे हैं और दूसरा, पौड़ी गढ़वाल लोकसभा सीट पर पूर्व सैनिकों और फौजियों और उनसे जुड़े लोगों की तादाद काफी ज़्यादा है.
1991 की रामलहर में बीजेपी ने इस फौजी अफसर को राजनीति का चोला पहनाकर पौड़ी गढ़वाल सीट से उतार दिया. खंडूड़ी के दिवंगत हेमवती नंदन बहुगुणा से मामा-भांजा के रिश्ते को तब बीजेपी ने ऐसा भुनाया कि खंडूड़ी पहले ही चुनाव में संसद जा पहुंचे. वो भी सतपाल महाराज को पटखनी देकर. वो ऐसा मौका था जब गढ़वाल में हेमवती नंदन बहुगुणा की राजनीतिक विरासत पर न तो उनके बेटे विजय बहुगुणा या शेखर बहुगुणा दावा ठोकने पहुंचे थे और न ही उनकी बेटी रीता बहुगुणा जोशी.
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खंडूड़ी 28 साल से बीजेपी में हैं |
हालांकि उत्तराखण्ड में तब लोगों को हैरानी ज़रूर हुई थी कि उनके भांजे खंडूड़ी को भाजपा ने लपक लिया. क्योंकि बहुगुणा उम्र-भर धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के लिए लड़ने वाले नेता थे. लेकिन फिर भी लोगों ने खंडूड़ी को कबूल कर लिया. बहुगुणा से नाते की वजह से खंडूड़ी को देखने-सुनने लोग पहुंच जाया करते थे. वो चुनाव राम लहर के बीच हुआ था, सो खंडूड़ी इस नए मोर्चे को आसानी से फतह कर गए.
चाहे राम लहर को क्रेडिट दें, खंडूड़ी के फौजी होने को या उनके बहुगुणा से रिश्ते को, यह बात भी सही है कि बीजेपी 1991 में पहली बार खंडूड़ी का चेहरा
सामने करके ही पौड़ी गढ़वाल लोकसभा सीट में दाखिल हुई थी. वरना उससे पहले तक वह कांग्रेस की पारंपरिक सीट रही है और 1989 में जनता दल का वही प्रत्याशी, चंद्रमोहन सिंह नेगी, वहां से जीते थे जोकि कभी कांग्रेस में थे। लेकिन 1991 के बाद से जितने भी
लोकसभा चुनाव हुए, खंडूड़ी महज एक ही चुनाव हारे हैं. वह भी 1996 का.
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...जब खंडूड़ी के मुरीद हुए वाजपेयी
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इन 28 साल की राजनीति में वह 5 बार के लोकसभा सांसद बन चुके हैं. उत्तराखण्ड के 2 बार के मुख्यमंत्री भी रहे. वाजपेयी सरकार में सड़क परिवहन एवं राजमार्ग जैसा हाईप्रोफाइल मंत्रालय उनके पास रहा. खंडूड़ी बीजेपी के 'युगपुरुष' अटल
बिहारी वाजपेयी की आंखों का तारा माने जाते रहे हैं. वाजपेयी की महत्वाकांक्षी
परियोजना 'स्वर्णिम चतुर्भुज' का जिम्मा वाजपेयी ने खंडूड़ी को ही सौंपा था,
जिसे खंडूड़ी ने शानदार तरीके से अंजाम देकर खासी दाद पाई थी.
वाजपेयी सरकार में कामकाजी मंत्रियों के मामले में खंडूड़ी की टीआरपी सबसे हाई थी. खंडूड़ी का सियासी कद बताने के लिए इतना परिचय काफी है. इसीलिए जब 2014 में मोदी की अगुआई में बीजेपी की सरकार बनी तो खंडूड़ी को कैबिनेट में लिया जाना तय माना जा रहा था. उनके पास अनुभव था. काम करने का एक चमकदार रिकॉर्ड भी था. लेकिन तब तक बीजेपी मोदी युग में प्रवेश कर चुकी थी. खंडूड़ी खाली हाथ हो गए.
खंडूड़ी के अच्छे दिन गए !
उम्र का हवाला देकर इस कर्मठ फौजी जनरल को किनारे लगा दिया गया. तब से खंडूड़ी बीजेपी के लिए संसद में महज एक संख्याभर थे. खंडूड़ी भी बतौर सांसद अपने इस कार्यकाल में बहुत सक्रिय नहीं रहे. पिछले पांच साल का उनका रिकॉर्ड इसकी गवाही दे रहा है. लगा जैसे वो बेमन से समय बिता रहे हों. संसद की बैठकों में उनकी उपस्थिति जरूर अच्छी-खासी रही है, लेकिन सांसद निधि खर्च करने से लेकर सवाल पूछने और संसदीय बहसों में उनकी हिस्सेदारी लगभग नगण्य रही. सांसद निधि का तो वह महज 29 फीसदी पैसा ही खर्च करा पाए हैं. नीचे उनकी परफॉर्मेंस की एक झलक देख सकते हैं.
वाजपेयी सरकार में कामकाजी मंत्रियों के मामले में खंडूड़ी की टीआरपी सबसे हाई थी. खंडूड़ी का सियासी कद बताने के लिए इतना परिचय काफी है. इसीलिए जब 2014 में मोदी की अगुआई में बीजेपी की सरकार बनी तो खंडूड़ी को कैबिनेट में लिया जाना तय माना जा रहा था. उनके पास अनुभव था. काम करने का एक चमकदार रिकॉर्ड भी था. लेकिन तब तक बीजेपी मोदी युग में प्रवेश कर चुकी थी. खंडूड़ी खाली हाथ हो गए.
खंडूड़ी के अच्छे दिन गए !
उम्र का हवाला देकर इस कर्मठ फौजी जनरल को किनारे लगा दिया गया. तब से खंडूड़ी बीजेपी के लिए संसद में महज एक संख्याभर थे. खंडूड़ी भी बतौर सांसद अपने इस कार्यकाल में बहुत सक्रिय नहीं रहे. पिछले पांच साल का उनका रिकॉर्ड इसकी गवाही दे रहा है. लगा जैसे वो बेमन से समय बिता रहे हों. संसद की बैठकों में उनकी उपस्थिति जरूर अच्छी-खासी रही है, लेकिन सांसद निधि खर्च करने से लेकर सवाल पूछने और संसदीय बहसों में उनकी हिस्सेदारी लगभग नगण्य रही. सांसद निधि का तो वह महज 29 फीसदी पैसा ही खर्च करा पाए हैं. नीचे उनकी परफॉर्मेंस की एक झलक देख सकते हैं.
बतौर सांसद खंडूड़ी के इस कार्यकाल की परफॉर्मेंस निराशाजनक रही |
फौजी पृष्ठभूमि को देखते हुए खंडूड़ी को सितंबर 2014 में संसद की रक्षा मामलों की स्थाई समिति का चेयरमैन ज़रूर बनाया गया, लेकिन राजनीतिक लिहाज से इस जिम्मेदारी की कोई खास अहमियत नहीं थी. लेकिन चर्चा है कि खंडूड़ी के नेतृत्व वाली इस कमेटी की एक रिपोर्ट ने मोदी सरकार को असहज कर दिया था. जिसके बाद खंडूड़ी को निपटाने की पटकथा लिखी जाने लगी. आखिरकार उन्हें संसद की रक्षा मामलों की स्थाई समिति के चेयरमैन पद से हटा दिया गया.
अंग्रेज़ी अख़बार 'द हिंदू' की 19 सितंबर, 2018 की एक रिपोर्ट के
मुताबिक, खंडूड़ी को हटाए जाने की बड़ी वजह बनी वही रिपोर्ट, जोकि
उन्होंने संसद की रक्षा मामलों की स्टैंडिंग कमेटी का चेयरमैन होने के नाते
तैयार की थी और उसे मार्च 2018 में संसद में पेश किया गया. 'द हिंदू' ने
लिखा है कि खंडूड़ी ने अपनी रिपोर्ट में रक्षा तैयारियों और पुराने
हथियारों से काम चलाए जाने को लेकर सरकार की खासी खिंचाई की थी. 'बिजनेस स्टैंडर्ड' अख़बार में वरिष्ठ पत्रकार अदिति फडणीस लिखती हैं, 'संसद की किसी स्थाई समिति के चेयरमैन को आज तक हटाया नहीं गया है'. खंडूड़ी जैसे शख्स के लिए वो वाकया बेहद अपमानजनक था. मुमकिन है कि उनके बेटे का बीजेपी के बजाय कांग्रेस में जाने के पीछे इस प्रकरण का भी कोई हाथ रहा हो.
राजनीति में भी फौजी वाला अक्खड़पन
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2012 में बीजेपी ने उत्तराखंड का विधानसभा चुनाव इसी नारे पर लड़ा |
भुवन चंद्र खंडूड़ी बीजेपी के लिए ज़रूरी हैं, कम से कम साल 2014 से पहले तक तो ऐसा ही लगता था. उत्तराखण्ड में 2012 में हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने खंडूड़ी की इसी छवि की तगड़ी ब्रैण्डिंग की थी और चुनावी कैंपेन के लिए एक नारा भी डिजाइन किया था- 'खंडूड़ी हैं ज़रूरी.' ये नारा ऐसे वक़्त में उछाला गया था जबकि उत्तराखण्ड में बीजेपी सत्तारूढ़ थी लेकिन चुनाव में उसकी दुर्गति होना अवश्यंभावी लग रहा था. तब खुद बीजेपी आलाकमान ने मुख्यमंत्री की कुर्सी पर अजीबोगरीब एक्सपीरेमेंट किए थे. हवाओं में सत्ताविरोधी रुझान की गंध महसूस की जा रही थी.
असल में 2007 के उत्तराखण्ड के विधानसभा चुनाव में जब बीजेपी 70 में से 35 सीटें (बहुमत से एक सीट कम) जीत गई और सरकार बनाने की स्थिति में आई तो तमाम किंतु-परंतु को पीछे छोड़कर बीजेपी ने तब सीएम की कुर्सी के लिए एक निर्विवाद चेहरे को तरजीह दी. वह भुवन चंद्र खंडूडी थे. उनकी ताजपोशी तब हुई, जबकि वो उस समय लोकसभा सांसद थे. खंडूड़ी ने सख्त प्रशासक की छवि के अनुरूप अपनी नई पारी शुरू की. कई अहम फैसले लिए. उनमें बहुत चर्चित फैसला था सरकारी नौकरियों में इंटरव्यू व्यवस्था को ख़त्म करना. मतलब लिखित परीक्षा पास की, मेरिट में आ गए तो उसी के आधार पर नियुक्ति होगी. उम्मीदवार को इंटरव्यू में रिजेक्ट करने का खेल खत्म. इसके कई साल बाद नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद खंडूड़ी की ही तर्ज पर फैसला किया, तो उन्हें खूब वाहवाही मिली.
खंडूड़ी ने अपने मुख्यमंत्री रहते सरकारी कामकाज में विधायकों को दखल नहीं देने दी. उनकी भूमिका सीमित कर दी. बतौर सीएम ज्यादातर फाइलों को खुद देखते / पढ़ते थे. आंख मूंदकर साइन नहीं करते थे. उन दिनों उत्तराखण्ड में लोगों के बीच अक्सर ये बात सुनी जाती थी कि खंडूड़ी ने भ्रष्ट नेताओं की दुकान बंद कर दी. इस परसेप्शन ने खंडूड़ी की छवि को और चमकाया.
खंडूड़ी की सख्ती बढ़ी तो खुद बीजेपी के भीतर ही विधायकों में नाराज़गी के सुर सुनाई देने लगे. पार्टी के भीतर खंडूड़ी हटाओ कैंपेन तेज़ हो गया. जिसका नतीजा ये हुआ कि उन्हें जून 2009 में बीजेपी आलाकमान ने सीएम पद से हटा दिया. उनके बाद रमेश पोखरियाल 'निशंक' सीएम बने. लेकिन उनकी सरकार जलविद्युत परियोजनाओं में घोटाले समेत दूसरी अनियमितताओं के आरोप में ऐसी घिरी कि सितंबर 2011 में निशंक को इस्तीफा देना पड़ा. बीजेपी आलाकमान ने एक बार फिर खंडू़ड़ी की तरफ उम्मीदभरी नज़र से देखा.
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कहां से निकला 'खंडूड़ी है ज़रूरी' नारा?
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2012 में इस नारे के दम पर बीजेपी ने बेहतर प्रदर्शन किया |
जो बीजेपी चुनाव से 6 महीने पहले तक मुकाबले को बुरी तरह गंवाने जैसी बदहवासी में पहुंच गई थी, वो अचानक मुकाबले में लौट आई. जिसका पता चलता है 2012 के चुनाव नतीजों से. उसी चुनाव में 'खंडूड़ी है ज़रूरी' का चुनावी नारा उछाला गया. सिर्फ खंडूड़ी के चेहरे पर चुनाव लड़ा गया और उसका असर भी देखने को मिला.
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2012 में जब उत्तराखण्ड विधानसभा के चुनाव नतीजे आए तो स्कोर था बीजेपी-31 और कांग्रेस-32 सीट. मतलब बीजेपी दोबारा सरकार बनाने की भी स्थिति में भी पहुंच गई थी. लेकिन बीजेपी नेताओं के अहं इतने आड़े आ गए कि उस चुनाव में जबर्दस्त भितरघात हुआ. खंड़ूड़ी अपने दम पर बीजेपी को तो जिता गए लेकिन खुद कोटद्वार सीट से खेत रहे. चुनाव हार गए. इसका साइट इफेक्ट ये हुआ कि मामूली अंतर से बीजेपी की सरकार बनते-बनते रह गई.
लेकिन ये सब 2014 से पहले की बातें हैं. राजनीति भी बाज़ार की तरह ही निर्मम होती है. यहां भी किसी प्रोडेक्ट की उपयोगिता की एक समय सीमा, एक उम्र होती है. 2014 के बाद से बीजेपी की राजनीति ने दूसरा प्रोडेक्ट अपना लिया है. अब बीजेपी के पास ये कहने का न विकल्प है, न मज़बूरी कि खंडूड़ी हैं ज़रूरी.
बीजेपी के लिए अब खंडूड़ी क्यों नहीं ज़रूरी ?
Reviewed by Manu Panwar
on
March 16, 2019
Rating:
Excellent
ReplyDeleteजी, बहुत बहुत धन्यवाद्।
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