बजने और बजाने की कला

मनु पंवार

अक्सर आपने बन्दों के मुंह से सुना होगा, आज मैंने उसकी बजा दी। यह आत्ममुग्धता की हाइट है जो टपोरी टाइप भाषा में व्यक्त होती है। वैसे ये बजाना कई प्रकार का हो सकता है, मसलन झगड़े या बहस में भारी पड़ जाना, सोशल मीडिया में किसी की ट्रॉलिंग करना इत्यादि। प्रायः पत्रकारों को भी ये गुमान रहता है कि वो सरकार या सिस्टम की बजा रहे हैं। हालांकि ऐसी ही सिचुएशन पर चचा ग़ालिब कब का कह गए हैं कि-  
"दिल के ख़ुश रखने को 
'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है।"

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लेकिन मैं तो तब चौंक गया जब मेरा एक पुराना मित्र मित्र, जोकि मेरा एक नियमित पाठक भी रहा है, चुहल में मुझसे उसी टपोरी स्टाइल में पूछ बैठा, यार ! तुम नेताओँ की और सिस्टम की इतनी क्यों बजाते हो? मैंने कहा, मैं तो सबकी बजाता हूं। कोई भेद नहीं करता। इस चक्कर में कभी-कभी अपनी भी बज जाती है। बजाना मेरा धर्म है। मैं इसमें दीक्षित हूं। मैंने प्रमाण के तौर पर उसे कुछ तस्वीरें दिखाईं। बताया कि देखो, मैं स्कूली दिनों से ही संगीत के एक साज़ का कलाकार रहा हूं। इस ताल वाद्ययंत्र पर बरसों से हाथ साफ करता रहा हूं। 
इत्ते बरस बजाते-बजाते अब तो हाथ सेट हो गया है। अब जब हाथ सेट हो गया तो भला किसी को कैसे छोड़ दूं? इतने बरस की साधना को यूं ही जाने दूं? यह तो वही बात हो गई कि जब बल्लेबाज क्रीज पर सेट हो जाए तो तुम उसे कह दो कि आजा पैवेलियन लौट आ। ऐसा सेट बल्लेबाज़ भला गेंदबाजों की क्यों न बजाए ! सो, हम भी बजाने लगे।

सितार पर मोहन सिंह रावत, जिन्होंने हमें तबले की तमीज़ सिखाई

खैर, यह तो चुहलबाजी हो गई। लेकिन बजाना कोई मामूली काम नहीं है साहब। अब तबले को ही ले लें। इसमें तो इतनी तरह से बजाया जाता है कि हर स्टाइल पर एक घराना खड़ा हो गया। वो भी एक-दो नहीं, छह घराने। जी हां, तबले के 6 घराने हैं, जिन्हें हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में मान्यता हासिल है। ये घराने हैं- दिल्ली घराना, पंजाब घराना, बनारस घराना, अजराड़ा घराना, लखनऊ घराना और फर्रुख़ाबाद घराना। सबका अपना अलग अंदाज़ है। हर घराने में एक से एक धुरंधर हुए हैं।

तबले पर हाथ रखने के अंदाज़ से ही जानकार बंदा समझ लेगा कि किस बाज का तबला है। दिल्ली घराने का बाज बड़ा मधुर, बड़ा कर्णप्रिय, बड़ा मीठा है। कानों में घुलता है। दिल्ली घराने का बजाने वाले के हाथ तबले से नहीं उठते। उसकी उंगलियां एकदम तबले से चिपककर चलती हैं। जैसी हाईवे पर एसयूवी गाड़ियां चिपक के चलती हैं। उंगलियां तबले पर ऐसी अठखेलियां करती हैं कि गजब का रस पैदा होता है।



दिल्ली घराने का बाज है ही ऐसा। 'ना' 'तिन' 'तिरकिट' जैसे तबले के बोल पर ही सारा खेल हो जाता है। वादन में चटक और टनक के लिए दिल्ली घराने का बाज मशहूर है। दिल्ली घराने के बाज में एक और खासियत है। यहां बजाने के स्टाइल में तर्जनी और बीच की उंगली का ज़्यादा उपयोग होता है। ऊपर वाली तस्वीर पर ज़रा गौर फरमाएंगे तो दाहिने हाथ की पहली दो उंगलियां देखकर अंदाज़ा लगा सकते हैं।

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तबले के दिल्ली घराने एक से एक बजाने वाले हुए हैं। बड़े-बड़े, नामी-गिरामी उस्ताद हुए। उस्ताद सिद्धारखां से होते हुए उस्ताद छम्मा खां, उस्ताद इनाम अली और उस्ताद शफात अहमद खां तक दिल्ली घराने का गौरवपूर्ण इतिहास रहा है। एक बार पण्डित शिव कुमार शर्मा के साथ शिमला आए उस्ताद शफात अहमद खान से मैंने पूछा, अब क्या बात हो गई कि दिल्ली घराने में ऐसे तबला वादक नहीं रहे जिसमें अपने घराने की विशेषताएँ हों?

हमारी नगरी पौड़ी में होली की संगीत बैठकी की एक पुरानी तस्वीर

उन्होंने मेरी बात पर सहमति जताई। बोले, "असल में सब शोहरत के पीछे भाग रहे हैं। सब जल्द से जल्द प्रसिद्धि चाहते हैं। तबला वादक भी सोचता है कि इधर-उधर का स्टाइल बजाऊं ताकि लोगों की तालियां बटोर सकूं। इस कोशिश में वह अपना मूल भी खो बैठता है।" ये उस तरह का बजाना हुआ जिसमें बंदा तुरंत पब्लिक की तालियों से जोश में आ जाता है।

वैसे बता दूं कि उस्ताद शफात अहमद खां ने दिल्ली घराने के बाज में बड़ा नाम कमाया। संतूर वादक पण्डित शिव कुमार शर्मा के साथ उन्होंने सबसे ज्यादा बजाया। वह पण्डितजी के पसंदीदा संगतकार रहे हैं। शिव कुमार शर्मा के साथ उस्ताद ज़ाकिर हुसैन से भी ज्यादा संगत शफात ने की।  शफात के वादन में अद्भुत कर्णप्रियता, मधुरता और रसात्मकता थी। लेकिन अब वह नहीं रहे।

गढ़वाल विश्वविद्यालय में एक प्रोग्राम की शायद 1998 की फोटो है

दिल्ली घराने से मिलता-जुलता बाज अजराड़ा घराने का भी है। मेरठ के पास अजराड़ा गांव के नाम पर 'अजराड़ा घराना' नामकरण हुआ है, इसमें कुछ नामी-गिरामी तबलची हुए हैं। तबला बजाने का यह अंदाज़ सबसे दिलचस्प, सबसे जुदा है। तबला लहराते हुए बजता है। लयकारियां करता हुआ आपको एक अलग ही मज़ा देता है। इस घराने की ख़ासियत यह है कि इसके तबले में बजने वाले ज़्यादातर बोल में आड़ी लय का प्रयोग होता है।

लखनऊ और फर्रुखाबाद के घरानों का बाज लगभग एक जैसा है। दोनों में लखनऊ के पुराने कल्चर की छाप है। लखनऊ में शुरू से ही नृत्य का खासा असर रहा है जिसकी चपेट में तबला वादक भी आए और उनकी वादन शैली भी ज़ोरदार हो गई। दिल्ली घराने के बजाने वाले जहां बहुत सॉफ्ट तबला बजाते हैं, वहीं लखनऊ में बाज जुदा हो जाता है। डांस के चक्कर में तबला ज़रा वज़नदार बोल वाला हो जाता है।

नैनीताल में पण्डित हरिकिशन साह जी के साथ संगत,  शायद 1996 की तस्वीर है

बनारस घराने के तबले पर भी नृत्य परंपरा का असर है। इस घराने ने पण्डित कंठे महाराज से लेकर ण्डित किशन महाराज, ण्डित अनोखे लाल,  ण्डित सामता प्रसाद 'गुदई महाराज' जैसे जीनियस तबला वादक दिए हैं। गुदई महाराज और किशन महाराज दोनों मेरे फेवरेट रहे हैं। वो ऐसा बजाते थे मानों दोनों तबले एक-दूसरे से बतिया रहे हों।

लेकिन पंजाब घराने का बाज सबसे जुदा है। यहां का तबला अलग ही अंदाज़ में बजता है। पखावज नाम का जो साज़ होता है, उसके बाज को बंद करके बजाते हैं तो पंजाब घराने का बाज हो जाता है। बाज को बंद करने को कुछ यूं समझिए कि मतलब बोल वही, लेकिन माध्यम नया। पखावज कुछ-कुछ ढोलक की शक्ल का होता है और तबला तो तबला होता है। लिहाज़ा पखावज से तबले की सवारी करने में में उन बोलों को बजाने का अंदाज़ बदल जाता है। पंजाब घराने में उस्ताद फ़कीर बक्श से लेकर स्ताद अल्लाहरक्खा खां और उनके बेटे उस्ताद ज़ाकिर हुसैन जैसे चमकदार सितारे हुए हैं। ज़ाकिर हुसैन को तबले को काफी लोकप्रिय बनाने का क्रेडिट भी जाता है। हां-हां, वही विज्ञापन में 'वाह ताज़' कहने वाले ज़ाकिर हुसैन, जिनका वादन श्रोता को चमत्कृत करता है।



अपन भी तबले के विद्यार्थी रहे हैं, मगर नियति कहीं और ले गई। मैं कई दफ़ा खुद को 'द एक्सीडेंटल जर्नलिस्ट' भी कह देता हूं। हालांकि तबला अभी भी नहीं छूटा है। बजाने का शौक तो है ही। लेकिन तबले के साथ-साथ अपने पहाड़ का लोकवाद्य ढोल बजाने का भी बड़ा शौक है। ढोल और दमाऊ जोड़े में बजता है। नीचे दाहिनी तरफ वालीफोटो में दिख रहा होगा। हमारे पहाड़ में ढोल की बड़ी अहमियत है। शादी-ब्याह से लेकर देवता नचाने तक ढोल हर जगह ज़रूरी है। ढोल के बगैर लोकदेवता प्रकट भी नहीं होते। इंसानों की तो बात ही क्या करें !

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पौड़ी के किंकालेश्वर मंदिर का नगाड़ा
गढ़वाली लोकवाद्य ढोल-दमाऊ है। तस्वीर अप्रैल, 2018


 
बजने और बजाने की कला बजने और बजाने की कला Reviewed by Manu Panwar on March 03, 2019 Rating: 5

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