महानगरों में अख़बारों के वजन से पता चलता है कि ऋतु बदल रही है

मनु पंवार

यह बंदा पहाड़ से है. यह बताना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि पहाड़ का बंदा ऋतु के बदलने के संकेत पहचान लेता है. पहाड़ों में प्रकृति तरह-तरह के रंग बदलते हुए दिख जाती है. पहाड़ का बंदा चूंकि प्रकृति के सबसे क़रीब होता है, लिहाज़ा वह प्रकृति के 'चाल-चरित्र-चेहरे' को अच्छी तरह से भांप लेता है. पहाड़ों में अंदाजा लग जाता है कि मौसम बदल रहा है. लेकिन यह वैसा वाला मौसम विज्ञान नहीं है, जिसके चैम्पियन अपने बिहार वाले रामविलास पासवान साहब हैं. यह ख़ालिस प्रकृति का मामला है. 

इधर, मैंने महसूस किया कि महानगरों में ऋतु बदलने का पता ही नहीं चल पाता. कुदरत के सिगनल इधर वीक आते हैं. शरद ऋतु कब आई, कब गई. वसंत कब आया, कब गया, इसकी ख़बर ही नहीं लगती जी. सावन में भी अगर अपने कांवड़िये भाईलोग कानफोड़ू डीजे से लोगों की नींद हराम न करें, तो महानगरों में पता ही न चले कि सावन भी आया था. हमें तो कांंवड़ियों का शुक्रगुज़ार होना चाहिए.

मौसम बदल रहा है, इसका अंदाज़ा महानगरों में तब ही लग पाता है जब बाज़ारों में बड़े-बड़े शोरूम और दुकानों में सेल, छूट या डिस्काउंट की तख्तियां नज़र आने लगती हैं. अगर टी-शर्ट, इत्यादि पर छूट के ऑफर नज़र आएं तो  समझ लो कि गर्मियों के जाने के संकेत हैं और सर्दियों के दस्तक देने का इशारा है. ठीक इसी तरह अगर जैकेट, स्वेटर, हुड इत्यादि गरम कपड़ों की सेल लगी हो तो समझ लो कि सर्दियों के दिन अब ज़्यादा नहीं हैं. वसंत की आहट महसूस कर ली जाए. वरना तो पहाड़ों और गांव-देहातों में सरसों के खिले फूल वसंत की आहट देने लगते हैं.

टाइम्स ऑफ इंडिया के शुरुआती कई पेज विज्ञापन से लबालब हैं
महानगरों में मौसम का अंदाज़ा लगाने का एक और ज़रिया है- अख़बार।  न,न, ख़बरों की बात कतई नहीं कर रहा हूं. विज्ञापनों की बात हो रही है. जब अख़बारों का वज़न हद से ज़्यादा बढ़ जाए और वो किसी गर्भवती स्त्री जैसे नज़र आने लगें तो महानगरों में पता चल जाता है कि मौसम बदल रहा है. मौसम जिसका बदला, उसका बदला, लेकिन बेचारे हॉकरों पर इन दिनों बड़ी बीतती है. इत्ता वज़नी अख़बार उठाते-उठाते उनकी जान निकलने लगती है. उनको ऐसे मौसम में खुद के लिए प्रधानमंत्री राहत कोष से स्पेशल पैकेज की मांग करनी चाहिए. वो तो ग़नीमत है कि अब 'वज़नदार' पत्रकारिता का ज़माना नहीं रहा, वरना बेचारे हॉकरों को दो-दो 'बोझ' उठाना बहुत भारी पड़ जाता.

आजकल जिस अख़बार के भी पन्ने पलटो, एक से एक ऑफर के विज्ञापनों से लबालब हैं. ख़ासकर अंग्रेज़ी अख़बार टाइम्स ऑफ इंडिया तो इस मौसम में अक्सर फूल कर कुप्पा हो जाता है. यकीन न आए तो फोटो देख लें. शुरुआत के कई पेज़ पलटते-पलटते जब बंदा थक जाए तब जाकर ख़बर का पन्ना शुरू होता है. हिन्दी के धाकड़ कवि लीलाधर जगूड़ी के शब्दों में कहें तो- 'ख़बर का मुंह विज्ञापन से ढका है'. 

लेकिन सीज़न ख़त्म होते ही अख़बार अचानक इतना हल्का नज़र आता है मानो तगड़ी डायटिंग करके 100 किलो का बंदा 52 किलो पर आ गया हो. हिन्दी अख़बारों की तो स्थिति तब और भी बुरी हो जाती है. वो इतने हल्के हो जाते हैं मानो कुपोषण से पीड़ित हों. 
महानगरों में अख़बारों के वजन से पता चलता है कि ऋतु बदल रही है महानगरों में अख़बारों के वजन से पता चलता है कि ऋतु बदल रही है Reviewed by Manu Panwar on October 13, 2019 Rating: 5

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