हमको कानून फ्री ज़ोन मांगता !


मनु पंवार
(यह व्यंग्य मेरे व्यंग्य संग्रह 'सेल्फी का स्वर्ण युग' से साभार लिया गया है, जोकि जगरनॉट से प्रकाशित है. सम-सामयिक होने की वजह से यहां शेयर कर रहा हूं)
साभार : संदीप अध्वार्यु का कार्टून उनके ट्विटर हैंडल से

एक समय की बात है। किसी राजा की राजधानी में अपराध और दुराचार की घटनायें बढ़ रही थीं। इस पर पब्लिक भड़क उठी। विरोधी ‘जंगल राज-जंगल राज’ चिल्ला रहे थे। उन्होंने राजा और उसकी सत्ता की नींद उड़ा दी। परेशान राजा ने दरबारियों से पूछा, “मेरे राज्य में कानून का राज होने के बावजूद यह घटना कैसे हो गई?” एक दरबारी ने बताया, “जी हुज़ूर। क़ानून खुद उस बस में बैठा था जिसमें कुछ ग़ैर-कानूनी लोग पहले से ही सवार थे। चूंकि राजधानी में ग़ैर-कानूनी लोग ज़्यादा ताक़तवर और ज़्यादा अराजक होते हैं इसलिए बस में भी क़ानून बेबस था और उनके सामने कानून की एक न चली।”

चलती बस में कानून की कराह कानून के रखवालों को सुनाई क्यों नहीं दी?” राजा ने झिड़का। एक दरबारी बोला, “हुजूर! कानून के रखवालों को और भी कई सारे काम करने होते हैं। ट्रैफिक वाला उस वक्त वसूली का टारगेट पूरा करने में पूरी तल्लीनता से जुटा था। दबंग थानेदार चुलबुल पांडे की तर्ज पर थाने में बैठे ऑन ड्यूटी सीटी बजा रहा था। उसकी सीटी पर कानून के बाकी रखवाले मुन्नी की बदनामी का कोरस गा रहे थे। राजधानी में कानून के जो बाकी रक्षक बचे, वे उन लोगों की रक्षा में जुटे हुए थे जो कानून को अपनी जेब में लिए घूमते हैं।”
लेकिन कानून बस में सफर ही क्यों करता है? वह कार क्यों नहीं रख लेता? इससे
कानून को निगरानी करने में आसानी होगी। समय भी बचेगा।” राजा ने दरबारियों से पूरक प्रश्न दाग दिया। 
हुजूर, कानून फोर व्हीलर को अफोर्ड नहीं कर सकता। अगर वह कार से चलेगा तो उसे ग़ैर-कानूनी रास्तों से होकर चलना पड़ेगा। जिससे कानून के भटकने के ज़्यादा चांसेज रहते हैं। इसलिए कानून पब्लिक ट्रांसपोर्ट को तवज्जो देता है। यह उसकी पसंद नहीं मजबूरी है।” दरबारी ने इस घटना का आर्थिक और समाजशास्त्रीय विमर्श सामने रख दिया।
साभार : इरफान का कार्टून उनके ट्विटर हैंडल से

राजा इस बात पर तमतमा गया। बोला- “अरे, अगर वह कम्बख्त कानून इतना ही भोला और इतना ही आदर्शवादी है तो वह राजधानी में रहता ही क्यों है? उसका यहां क्या काम? अपना मनहूस चेहरा लेकर कहीं और चला क्यों नहीं जाता?
राजा के मुख से मानो दरबारियों के मन की बात फूट पड़ी। एक दरबारी ने चहकते हुए बताया- “हुजूर, राजधानी में वज़ीरों और दरबारीगणों को नित्य के कामकाज में कहीं असुविधा न हो, इसका ख्याल रखते हुए हमने कई बार कानून को तड़ीपार करने की कोशिश की। हमने उसे छोटे शहरों, कस्बों में भिजवाया जहां उसकी वर्दी के रंग से ही प्रजा कांपने लगती है और शांति बनी रहती है। लेकिन कानून बावला है। वह फिर घूम-फिरकर राजधानी को ही लौट आता है। कहता है जहां सरकार रहेगी, वह भी वहीं रहेगा।”
तो इस कानून का क्या किया जाए?” क्षुब्ध राजा ने दरबारियों से सलाह मांगी। “हुजूर, इस कानून की वजह से ही सरकार खुलकर कामकाज नहीं कर पाती। हमारे अफसर बेचारे भयाक्रांत रहते हैं। ‘गुड गवर्नेंस’ में कानून बड़ी अड़चन है। हमारे कई वज़ीर इसके चक्कर में जेल भी जा चुके हैं। इसलिए बाधारहित राजकाज चलाने के लिए कानून को राजधानी से बाहर भिजवाना ज़रूरी है। यूं भी हमारे लिए हुजूर का हुक्म ही कानून है, लिहाजा राजधानी में कानून की क्या ज़रूरत?
राजा को बात जम गई। ‘गुड गवर्नेंस’ की बात पर राजा ने दरबारियों की सलाह मान ली है। राजधानी को कानून फ्री ज़ोन बनाने की तैयारी हो गई है।
हमको कानून फ्री ज़ोन मांगता ! हमको कानून फ्री ज़ोन मांगता ! Reviewed by Manu Panwar on December 13, 2019 Rating: 5

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